Book Title: Appa so Parmappa
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 388
________________ हृदय का सिंहासन : परमात्मा का आसन | ३७३ उसके लिए एंजिन में भाप का भी यथोचित्त मात्रा में होना आवश्यक होता है । वाष्प से उत्पन्न शक्ति के कारण ही रेलगाड़ी के पहियों में गति-प्रगति होती है। इसी प्रकार परमात्मपद प्राप्त करने के आत्मार्थी के संकल्प और अन्तःस्थित परमात्मा के प्रति सम्मुखता तथा हृदयद्वार खुलने के साथ-साथ पर्याप्त शक्ति और साहस की भी आवश्यकता है । अपने अन्तिम लक्ष्य के प्रति दृढ़निष्ठा, वफादारी तथा उसे पूर्ण करने के लिए आवश्यक प्रयास, भविष्य के प्रति आशापूर्ण दृष्टिकोण, धैर्य, साध्यप्राप्ति के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों से जूझने का साहस, उत्साह और मनोबल भी आवश्यक है। इन सबको हम एक शब्द में 'आत्मशक्ति' कह सकते हैं। वह शक्ति अनन्तशक्तिमान परमात्मा से ही प्राप्त हो सकती है, जो आत्मार्थी के हृदय में विराजमान है। वह एकाग्रचित्त होकर जब मन ही मन संकल्पात्मक प्रार्थना करता है कि "मेरे हृदय के आराध्यदेव प्रभो ! मेरे अन्तर् में ऐसी अन्तःप्रेरणा और प्रबल स्फुरणा उत्पन्न कर दें, जिससे मुझं वह पर्याप्त आत्मशक्ति मिल सके। क्योंकि आप अनन्त आत्मशक्ति के स्रोत हैं । तब अवश्य ही आत्म शक्ति का संचार उसकी आत्मा में होने लगता है। आत्मार्थी साधक की अन्तिम लक्ष्य-शिखर तक पहुँचने को यात्रा बहुत लम्बी व उतार-चढ़ाव वाली और दुर्गम है। मार्ग में कई विकट घटियाँ आती हैं, जिन्हें पार करना अत्यन्त कठिन है । तथा आत्मघाती चार बडे-बड़े कर्म-पर्वत आते हैं, जिन्हें लाँघना अतीव दुष्कर कार्य है, रास्ते में राग-द्वष आदि भयंकर लुटेरे हैं, तथा मोह-ममत्व आदि बहुत-से लुभावने विकार ठग हैं, जो आत्मधन का हरण करने के लिए उद्यत हैं। परमात्म पद की मंजिल तक पहुँचने की ऐसी कठोर साहसिक तथा दुर्गम यात्रा में किसी विश्वस्त मार्गदर्शक तथा आत्मशक्ति-प्रेरक के सहारे की आवश्यकता रहती है । उसकी पूर्ति अपने हृदय में स्थित विश्ववत्सल प्रभु अव्यक्त रूप से करते हैं । अन्यथा, आत्मार्थी साधक को अपने दुर्बल अंगोपांग, अल्पज्ञान और चंचल व अदृढ़ मन तथा अल्प जीवनी शक्तिसम्पन्न इन्द्रियों एवं अत्यल्प साधनों के भरोसे लक्ष्य के अन्तिम शिखर तक पहुँचना अतीव दुष्कर होता है। किन्तु अन्तःस्थित परमपितामह विश्ववत्सल परमात्मा का पूर्वोक्त प्रकार से सुदृढ़ आलम्बन मिल जाता है, तब आत्मार्थी साधक उत्साह, साहस और आत्मबल के साथ अन्तिम लक्ष्य तक आसानी से पहुँच सकता है। इसी आत्मशक्ति को प्राप्त करने के लिए समस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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