Book Title: Appa so Parmappa
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 383
________________ ३६८ | अप्पा सो परमप्पा कामक्रोधादि वैकारिक दुर्गुणों-विभावों सहसा घुस नहीं सकते और वे विकासचोर हृदयभवन का नष्ट-भ्रष्ट एवं विकृत भी नहीं कर सकते हैं। इसके लिए साधक सदैव वीतराग परमात्मा से प्रार्थना करता रहे प्रभो ! मेरा हृदय गुणसिन्धु अपरम्पार हो जाए। सफल सब ओर से पावन मनुज-अवतार हो जाए । ख शी हो, रंज हो, कुछ हो; रहूँ मैं एक-सा हरदम । हृदय के यंत्र पर मेरा; अटल अधिकार हो जाए। जरा-सा भी मिले मेझमें, न ढूँढा चिन्ह ईर्ष्या का। पदोन्नति देखकर, दिल हर्ष से सरसार हो जाये॥1 ये और इस प्रकार के आत्मगुगों से साधक का हृदय सराबोर रहेगा, तब यह निश्चित है कि आत्मगुणों से परिपूर्ण परमात्मा भी हृदयमन्दिर में विराजमान हुए दिखाई दें; क्योंकि शुद्ध आत्मा के स्वभाव और निजगुणों में एवं परमात्मा के स्वभाव और स्वगुणों में कोई अन्तर नहीं है। हृदय-भवन को पवित्र रखने से ही परमात्मा विराजमान दीखेंगे यह ध्यान रखना चाहिए कि परमात्मा से सद्गुणों से हृदय परिपूर्ण रहने की केवल प्रार्थना करने से ही काम नहीं चलेगा, इतने मात्र से ही प्रभु हृदय में सदैव सतत विराजमान दिखाई नहीं देंगे। प्रभु को आमंत्रित करने से पहले उनके विराजमान होने के हृदय को पवित्र, निर्मल, निश्छल एवं निष्कलंक भी रखना होगा । फारसी के एक शायर 'दीवाने साहब' ने लिखा है "गैर हकरा मिदे ही रह, दर रहीम दिल चिरा। मीक सीबर सफे हस्ती खते बातिल चिरा ॥" इसका भावार्थ यह है-ऐ इन्सान ! तु अपने दिल के किले में हक, ईमान और रहम के सिवा दूसरे को क्यों जगह देता है ? तू अपने दिल में हक को जगह देने के बदले हराम को जगह देता है, तो क्या तेरा दिल हराम को जगह देने के लिए ही है ? एक धनिक ने बहुत सुन्दर महल बनवाया। यदि वह अपने महल में । पधारने के लिए किसी बड़े आदमी-महामन्त्री को आमन्त्रण दे दे और जिस | १ अमर जन पुष्पांजलि (कवि श्री अमर मुनिजी म०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422