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हृदय का सिंहासन : परमात्मा का आसन | ३६७
जहाँ राम, तहां काम नहीं, जहाँ काम नहीं राम । दोनों इकठा ना रहे, राम काम इक ठाम ॥1
यही कारण है कि जो परमात्मा को अपने अन्तर्ह दय-भवन में विराजमान देखना चाहते हैं, या देखते हैं, वे सदैव सतत सावधान एवं अप्रमत्त रहते हैं और रहने का प्रयत्न करते हैं। जब भी हृदयभवन पर काम, क्रोध, मद, मोह, मत्सर, राग, द्वेष आदि विकाररूपी चोर आक्रमण करने लगते हैं, तब वे तुरन्त सावधान हो जाते हैं। ऐसा भक्त सहृदय साधक अल्पज्ञ और अल्प-अप्रमत्त होता है, इसलिए विकार चोरों के हृदयभवन में प्रवेश करने और उसे गंदा करने की संभावना रहती है। ऐसे विकारचोरों के जबरन घुस जाने पर वह परमात्मा से सविनय प्रार्थना करता है, कि वे ऐसी अन्तःस्फुरणा एवं आत्मशक्ति प्रदान करें, जिससे वह उन अन्तःप्रविष्ट विकारचोरों को शीघ्र भगा सके, वे विकारचोर उसके आत्मगुणरूपी धन का हरण न कर सकें । गोस्वामी तुलसीदासजी ने 'विनय पत्रिका' में ऐसी ही प्रार्थना प्रभु से की है
मम हृदय-भवन प्रभु तोरा। तंह आय बसे बहु चोरा ॥ अतिकठिन करहि बरजोरा । मानहि नांही विनय-निहोरा ।। तम मोह लोभ अहंकारा । मद क्रोध बोधरिपु मारा। अति करहिं उपद्रव नाथा। मरदह मोहि जान अनाथा ।। मैं एक अमित बटमारा। कोऊ सुने न मोर पुकारा ॥2
वस्तुतः अपनी आत्मा को परमात्म-प्राप्ति के योग्य बनाना चाहने वाले साधक को चाहिए कि परमात्मा के परमात्मभाव के रूप में रहने के स्थान- हृदय-भवन में सूक्ष्मरूप से प्रविष्ट होने वाले काम, क्रोध, मद, लोभ, रागद्वेष, अज्ञान आदि विकारों कों ज्ञ-परिज्ञा से जान ले, किन्तु उनके प्रवाह में न बह जाए, उनके संग का रंग न लगाए, वह तटस्थ ज्ञाताद्रष्टा रहे, फिर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उन्हें हटाने के लिए पूर्ण आत्मशक्ति के साथ पुरुषार्थ करे। दूसरी ओर से---वह ऐसा प्रयत्न भी करे, जिससे उसका हृदय आत्मगुणों से सुसज्जित रहे, ताकि काम क्रोधादि दुर्गुणों को हृदय में प्रविष्ट होने का अवसर ही न मिले । क्योंकि आत्मगुणों के रहते,
१ तुलसी दोहावली (गोस्वामी तुलसीदास जी) २ विनयपत्रिका (गोस्वामी तुलसीदास जी)
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