Book Title: Appa so Parmappa
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 380
________________ हृदय का सिंहासन : परमात्मा का आसन | ३६५ अनन्त सुख के स्वभाव से ओतप्रोत हैं, जो संसार के समस्त विकारों से रहित हैं, जो निर्विकल्पसमाधि ( ध्यान की पूर्ण निश्चलता ) द्वारा ही पूर्णतया अनुभव में आते हैं, जिनका परमात्मा नाम है । 1 जो संसार के समस्त दुःख जाल को विध्वस्त कर डालता है, जो त्रिजगतुवर्ती समस्त पदार्थों को जानता देखता है । और अन्तर्हृदय में योगियों (ध्यानसाधकों ) द्वारा भली-भाँति निरीक्षण किया जा सकता है, वह देवाधिदेव मेरे हृदय में विराजमान हों । जो मोक्षमार्ग के प्रतिपादक हैं, जो जन्म-मरणादिरूप दुःखों ( आपत्तियों) से रहित हैं, जो तीन लोक के द्रष्टा ज्ञाता हैं, जो निरंजन निराकार (अशरीरी ) हैं और निष्कलंक हैं, वे देवाधिदेव ....... । जिन दोषों (अष्टादश दोषों) ने समस्त संसारी जीवों को अपने चंगुल (नियन्त्रण) में ले रखा है, वे रागादि दोष जिनमें लेशमात्र भी नहीं हैं, जो ( अशरीरी होने के कारण ) इन्द्रिय और नोइन्द्रिय ( मन ) से रहित हैं, अथवा जो (जीवन्मुक्त) अतीन्द्रिय (ज्ञान के लिए इन्द्रियों और मन की सहायता नहीं लेने वाले) हैं, जो ज्ञानमय हैं, अपाय ( विघ्न या विनाश) से रहित अविनाशी हैं । वे वीतराग देव : जो ( अनन्तज्ञान की दृष्टि से ) सारे विश्व में व्याप्त हैं, जो विश्व कल्याण की भावना से ओतप्रोत हैं, जो सिद्ध ( कृतकृत्य) हैं, बुद्ध (पूर्ण ज्ञाता) हैं, जो कर्मबन्धनों को तोड़ चुके हैं, जिनका अन्तर्ध्यान करने पर समस्त विकार दूर हो जाते हैं, वे देवाधिदेव परमात्मा मेरे हृदय में आसीन हों । " १ "यो दर्शन, ज्ञान-सुख -स्वभावः, समस्त संसार - विकार - बाह्यः । समाधिगम्यः परमात्म-संज्ञः, स देवदवो हृदये ममास्ताम् || - सामायिक पाठ श्लो. १३ २ (क) निषूदते यो भवदुःखजालं निरीक्षते यो जगदन्तरालम् । योऽन्तर्गत योगि निरीक्षणीयः, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ ४॥ (ख) विमुक्ति मार्ग प्रतिपादको यो, यो जन्म-मृत्यु- व्यसनादृव्यतीतः । त्रिलोकलोकी सकलोऽकलंक: स देवदेवो हृदये ममाऽस्ताम् ॥ १५ ॥ ( ग ) कोड़ीकृताः शेष - शरीरिवर्गाः रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः । T: निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपायः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१६॥ (घ) यो व्यापको विश्वजनीनवृत्तिः सिद्धो विबुद्धो धुतकर्मबन्धः । ध्यातो धुनीते सकलं विकारं स देवदेवो हृदये ममाऽस्ताम् ।।१७।। -सामायिकपाठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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