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३६४ | अप्पा सो परमप्पा
जैसे धुएं से अग्नि और मैल (गर्दै) से दर्पण ढक जाता है, इसी प्रकार जैसे जेर से गर्भ ढका हुआ होता है, वैसे ही अन्तःस्थित परमात्मा के दिव्यज्ञान का प्रकाश कामादि विकारों के द्वारा ढक जाता है ।
जिस हृदयरूपी उद्यान में परमात्मीय ज्ञान के सुगन्धित फूल खिल सकते थे और उनसे पारिपाश्विक वातावरण को गुणों की सुगन्ध से सुरम्य बनाये रखा जा सकता था, उस उद्यान में पतझड़ की स्थिति उत्पन्न करने में मूल कारण वही क्ष द्रताधारी मूर्ख हो जाता है। निराकार परमात्मा : अपने अनन्तज्ञानादि स्वभाव के रूप में हृदय में स्थित
__ कोई कह सकता है कि सिद्ध-परमात्मा तो अशरीरी एवं निराकार हैं, वे कैसे किसी प्राणी के हृदय-भवन में बैठ सकते हैं ? जबकि आचार्य अमितगतिसूरि ने सामायिकपाठ में छह श्लोकों के द्वारा अभिव्यक्त किया है
'स देवदेवो हृदये ममाऽस्ताम् ।।
"वह देवाधिदेव परमात्मा मेरे हृदय में आसीन हों, विराजमान हों।"
यदि यह प्रार्थना जीवन्मुक्त अरिहन्त परमात्मा के लिये की गई है, तब वे भी किसी दूसरे प्राणी के हृदय में कैसे विराजमान हो सकते हैं ?
इसका समाधान यह है कि इस पाठ में छह श्लोकों द्वारा शरीरधारी अरिहन्त और अशरीरी सिद्ध, दोनों ही प्रकार के परमात्मा से हृदय में स्थित होने की नम्र प्रार्थना की है । हाँ, यह तथ्य सिद्धान्त-विरुद्ध एवं युक्तिविहीन है कि कोई भी परमात्मा, यहाँ तक कि शुद्ध आत्मा भी किसी दूसरे प्राणी के हृदय में सन्निविष्ट होता है, विराजता है या बैठता है । परमात्मा (या शुद्ध आत्मा) स्वभावों और स्वगुणों के अमूर्त-निराकाररूप में ही प्राणी के हदय में स्थित होते हैं, साकार रूप में नहीं। यही कारण है कि आचार्यश्री अमितगति ने इस प्रार्थना के साथ ही उनके स्वभावों एवं स्वगुणों का वर्णन करते हुए कहा है-"जो अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और
१ सामायिक पाठ श्लो. १३
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