Book Title: Appa so Parmappa
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 377
________________ ३६२ | अप्पा सो परमप्पा सन्देश को श्रवण ग्रहण करने में प्रमाद कर जाते हैं, उनकी उत्सुकता एवं उत्कण्ठा में मन्दता आ जाती है, तब उनके हृदय पर अज्ञान एवं मोह का पर्दा पड़ जाता है और तब वे उनके सन्देश-निर्देश को ग्रहण नहीं कर पाते। निष्कर्ष यह है कि जिसका अन्तःकरण स्वच्छ, निश्छल, सरल, निष्काम, निःस्पृह न हो; जिसके हृदय में क्रोधादि की तीव्रता हो, कामान्धता, विषयवासना तथा राग-द्वोष, मोह आदि विकारों की प्रचुरता जिसके हृदय में हो, हिंसा आदि आस्रवों में जो अहर्निश प्रवृत्त रहता है, जिसका हृदय मिथ्यात्व, अज्ञानता तथा दुर्भावों से भरा हो, उसके हृदय पर पर्दा पड़ जाता है, उसके हृदय के भावद्वार आवत हो जाते हैं। उसको अन्तः स्थित ज्ञानादिरूप परमात्मा के दर्शन तथा उनकी दिव्यप्रेरणा का ग्रहणश्रवण नहीं हो पाता । इस कारण उसकी आत्मा सुषुप्त हो जाती है । हृदयद्वार बन्द हो जाने पर"" ___ इसी आशय से आचारांग सूत्र में बताया गया है अणाणाए पुट्ठा वि एगे नियति । 'मंदा मोहेण पाउडा ।' तओ से एगया मूढ़भावं जयंति । तं से अहियाए, तं से अबोहिए।1 अर्थात्-अन्तःस्थित परमात्मा की अव्यक्त आज्ञा को ठुकराकर कई अज्ञानी मोह से आवृत होकर (मुक्त-परमात्मा की ओर जाने के बजाय) संसार की ओर लौट पड़ते हैं। फिर कभी-कभी उनके हृदय में मूढभाव उत्पन्न हो जाते हैं। यह (हिंसादि कृत्य करने की) मुढता उसके लिये अहितकर होती है, उसके लिए अबोधि का कारण होती है । इन सब भगवद्वचनों का अभिप्राय यह है कि जिसका हृदय स्वच्छ, निर्मल, परमात्मा के प्रति एकाग्र, सरल एवं निश्छल नहीं होता, जो हिंसादि दुष्कृत्यों के चितन में रत रहते हैं। उनके हृदय का द्वार काम, क्रोध १ (क) आचारांग सूत्र अ. १, अ. २, उ. २ (ख) वही, १/१/२ (ग) वही, १/२/१ (घ) वही, १/१/७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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