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३६६ | अप्पा सो परमप्पा
इन समस्त श्लोकों के द्वारा परमात्मा को स्वभावों और आत्मगुणों से युक्त निराकार अमूर्त बताया गया है। वही निरंजन निराकार परमात्मा (शुद्ध आत्मा) प्राणि हृदय में स्थित विराजमान रहते हैं । हृदयासीन निराकार परमात्मा किसे दिखाई देते हैं ?
ऐसे निरंजन निराकार ज्ञानादिमय परमात्मा को अपने हृदय में विराजमान वही देख सकता है, वही जान सकता है, जिसका हृदय संकीर्ण, क्षुद्र, स्वार्थी तथा अनुदार न हो । जिसका हृदय स्वच्छ और सरल नहीं होगा, जिसके हृदय में पापवासनाएँ क्षुद्र कामनाएँ, तुच्छ स्वार्थ भावनाएँ भरी होंगी। उसके हृदय के भावद्वार पर कामक्रोधादि विकारों का पर्दा पड़ जायगा, उसके अन्तश्चक्षुओं पर मोहादिकर्ममालिन्य का जाला छा जाएगा । फलतः उसे अपने अन्तर्भवन में विराजमान निराकार परमात्मा, स्वभावों और आत्मगुणों से सम्पन्न वोतराग प्रभु दिखाई नहीं देंगे। जिसको अपने हृदय में स्थित निराकार परमात्मा नहीं दिखाई देते ; वह मनुष्य जन्म पाकर भी 'मैं' और 'मेरे' ( मेरा शरीर, मेरे पुत्र, मेरी पत्नी, मेरे माता-पिता, मेरा धन, मेरा प्रान्तादि) के चक्कर में फंस जाता है। ऐसा दूषित अहंभाव मानव को जन्म-मरणादि रूप संसार के दुःखों डालता है । वह कंचन और कामिनी के मोह में लुब्ध कर देता है । जिससे व्यक्ति अपना (अपने शुद्ध आत्मा और परमात्मा) का भान ज्ञान भूल जाता है । आत्मधर्म से विमुख होकर अपने हृदय पर पर्दा डाल देता है, जिससे उसे अन्तःस्थित परमात्मा हृदय सिंहासन पर आसीन दिखाई नहीं देते । निरंजन निराकार परमात्मा उसकी दृष्टि से ओझल हो जाते हैं ।
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परमात्मा को हृदय में विराजमान देखने के लिए क्या करे, क्या नहीं ?
जो साधक परमात्मा को हृदय में विराजमान देखना चाहता है, जो हृदयद्वार पर भाव- आवरण नहीं चाहता, अन्तश्चक्षु के पट खुले रखना चाहता है, उसे निराकार ज्ञानमय प्रभु को विराजमान रखने और देखने के लिए अपने हृदय को सतत स्वच्छ और पवित्र रखना चाहिए। अपने हृदय को परमात्मा, शुद्ध आत्मा या आत्म- गुणों के सिवाय किसी और ( परभाव या विभाव) के लिए सुरक्षित न रखे। अपने हृदय के सिंहासन पर वह परमात्मा को भी बिठाना चाहे और सांसारिक कामादि विभावों, या परभावों को भी, तो परमात्मदर्शन संभव नहीं हो सकेगा । जैसा कि एक अनुभवी ने कहा है
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