Book Title: Appa so Parmappa
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 378
________________ हृदय का सिंहासन : परमात्मा का आसन | ३६३ लोभ, मोह आदि विभावों तथा परभावों की आसक्ति से आवृत हो जाता है । वे फिर परमात्मा की दिव्य प्रेरणा, स्फुरणा एवं अव्यक्त आदेश - संदेशों का श्रवण-मनन-चिंतन एवं ग्रहण नहीं कर पाते। उन्हें कुछ सूझता ही नहीं, उनकी सद्बुद्धि पर पर्दा पड़ जाता है, वे सोच ही नहीं पाते कि हिंसादि आरम्भ करके ' हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं । हमारे लिये यह और अहितकर एवं अबोधिजनक होगा । जिसका हृदयद्वार अवरुद्ध हो जाता है, वह अपनी आत्मा के निजी गुणों को विकसित करने के लिये परमात्मा से अव्यक्त प्रेरणा और प्रकाश नहीं पाता । अपनी आत्मा में ज्ञान, दर्शन, आत्मशक्ति और आत्मानन्द के भण्डार भरे पड़े हैं, उन्हें पहचानने, ढूंढ़ने और विकसित करने के महान् कार्यों को करने हेतु उसमें कोई रुचि, उत्साह एवं साहस नहीं होता । वह जीवन से निराश, हताश होकर जीवन का ध्येय बहुत ही क्ष ुद्र एवं संकुचित बना लेता है । जो क्षुद्र ध्येय बना लेते हैं, वे अपने में, अपने ही संकीर्ण स्वार्थ और अहं के घेरे में बन्द हो जाते हैं। उनकी जिज्ञासावृत्ति, आस्तिकता एवं उदारता समाप्त हो जाती है । वे केवल अपने ही क्षुद्र वैषयिक सुख का विचार करते हैं । आचारांग सूत्र के अनुसार वह अपना एवं अपनों का ही पेट भरने, सन्तान पैदा करने में और इन्द्रियविषयों के कामभोगों में आसक्त व्यक्ति मूर्ख और मोहग्रस्त होता है । उसका दुःख शांत नहीं होता । फलत: वह दुःखी होकर दुःखों के ही आवर्त चक्र में बार-बार जन्म-मरणरूप संसार में पर्यटन करता रहता है । फिर उसका हृदय क्ष ुद्रताग्रस्त विचारों से श्मशान की तरह मनोविकारों की चिन्ताओं के धुएं से आच्छादित हो जाता है । उसका हृदय - द्वार क्यों और कैसे आवृत हो जाता है, उसके लिये भगवद्गीता कहती है— 'धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च । यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् || 2 १ एत्थ सत्यं समारंभमाणस्स इच्चेते आरम्भा अपरिण्णाया भवन्ति । - आचा. १/१/६ २ वाले पुण निहे काम समुणन्ने असमियदुक्खे, दुक्खी दुक्खाणमेव आवट्टमणु- - आचा. १/२/३ परियइ । ३ भगवद्गीता अ. ३ श्लो. ३= Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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