Book Title: Appa so Parmappa
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 358
________________ परमात्म भाव से भावित आत्मा : परमात्मा ) ३४३ निराकार एवं शरीरादि से रहित हैं । उनका यथार्थ स्वरूप क्या है ? उनके स्वरूप की प्राप्ति का यथार्थ उपाय क्या है ? इसे बताने वाले कोई हैं तो वे सर्वज्ञ सर्वदर्शी अरहन्त परमात्मा हैं । सिद्ध परमात्मा का स्वरूप अरहन्त परमात्मा ने न बताया होता तो हम कैसे जान पाते कि सिद्ध परमात्मा का स्वरूप तथा सिद्धदशा की प्राप्ति का उपाय क्या है ? सिद्ध परमात्मा के विषय में जाने बिना कोई भी आत्मार्थी जीव पूर्ण परमात्म प्राप्ति के के लिए उत्साहित न होता। दूसरे, निरंजन निराकार परमात्मा के साथ सीधा सम्बन्ध जोड़ने की अपेक्षा साकार परमात्मा के साथ सम्बन्ध जोड़ना आसान होता है। साकार परमात्मा के माध्यम से निराकार परमात्मा के साथ सरलता से सम्बन्ध जोड़ा जा सकता है। जिनेश्वर देव में निराकार शुद्ध चैतन्य को देख-समझकर हम प्रतीति कर सकते हैं। इसलिए पहले अर्हत्प्रभु के परमात्मभाव को अपनी आत्मा में भावित करना आवश्यक है। आत्मा अणु है तो परमात्मा सूर्य है अपने आपको परमात्मभाव से भावित करने पर ही आत्मा परमात्मा हो सकती है। प्रश्न होता है-कहाँ आत्मार्थी की लघु आत्मा और कहाँ विराट् परमात्मा ! विराट् परमात्मा को साधारण साधक कैसे अपने में स्थापित कर सकता है ? वे वीतराग हैं, साधक अभी छद्मस्थ है, वीतरागपथ का पथिक है, घाती कर्मों से आवृत है। व्यवहारदृष्टि से साधक की आत्मा और परमात्मा में लघुता और महानता का अन्तर अवश्य है, किन्तु निश्चयदृष्टि से दोनों की आत्मा में कोई अन्तर नहीं है । अन्तर केवल विकसित और अविकसित अवस्था का है। अविकसित साधक क्षुद्र है, फिर भी उसमें विराट की सभी सम्भावनाएँ मौजूद हैं । इसीलिए तो साधक की आत्मा को परमात्मभाव से भावित करने का निर्देश किया गया है। अग्नि की नन्ही-सी चिनगारी विराट् अग्नि तत्व की एक इकाई है, उसे अवसर मिले तो प्रचण्ड ज्वाला बनकर दूर सूदूर के क्षेत्रों में फैल सकती है । वह चाहे तो अपना अग्निकणरूप समाप्त करके विराट् अग्नितत्व में विलीन हो सकती है और स्वयं विराट् अग्नितत्व भी बन सकती है। हम विराट और लघु की यानी परमात्मा और साधक की आत्मा की तुलना सूर्य और परमाणु से कर सकते हैं । यद्यपि सूर्य का विस्तार एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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