Book Title: Appa so Parmappa
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 357
________________ ३४२ | अप्पा सो परमप्पा परमात्मा को पहले जानने से ही शुद्ध आत्मा को जान पायेगा सामान्यतया आध्यात्मिक जगत् में यह कहा जाता है कि पहले आत्मा को जानो, फिर परमात्मा को। किन्तु आत्मा को-शुद्ध आत्मा को-सामान्य व्यक्ति बिना किसी आलम्बन या आदर्श दृष्टिसमक्ष हुए बिना अथवा बुद्धि में जमे बिना पहले कैसे जान-पहचान सकता है ? अतः सच्चे माने में पहले परमात्मा को जाने-पहचाने बिना आत्मा के शुद्ध रूप को नहीं जाना जा सकता। इसी तथ्य का समर्थन आचार्य कुन्दकुन्द ने किया है जो जाणादि अरहन्ते, दवत्त-गुणत्त-पज्जवत्तेहि । सो जाणादि अप्पाणं, मोहो तस्स लयं जादि ।। जो द्रव्य, गुण और पर्याय की अपेक्षा से अर्हत् परमात्मा को जानता है, वही अपनी आत्मा को (शुद्धरूप में) जान पाता है। और अपनी आत्मा को शुद्ध रूप में जानने पर परपदार्थों पर से उसका मोह-ममत्व समाप्त हो जाता है। परमात्मा बनने के इस आदिसूत्र का फलितार्थ यही है कि अगर कोई मुमुक्ष आत्मा परमात्मा होना चाहता है, तो उसे पहले परमात्मा को अपने में स्थापित करना आवश्यक है। अर्थात् परमात्मा का स्वरूप जानकर अपनी आत्मा को उक्त परमात्म-भाव से भावित करना अनिवार्य है। परमात्मा के दो रूप : प्राथमिकता अरहन्त प्रभु को जैनदृष्टि से परमात्मा मुख्यतया दो प्रकार के माने गये हैं(१) अरहन्त परमात्मा और (२) सिद्ध परमात्मा । यद्यपि सिद्ध-परमात्मा का दर्जा अरहन्त परमात्मा से ऊँचा है, क्योंकि सिद्ध परमात्मा तो आठों ही कर्मों से रहित, अशरीरी, निरंजन, निराकार एवं जन्म-मरण से सर्वथा रहित पूर्णशुद्ध हो चुके हैं, जबकि अरहन्त परमात्मा अभी चार आत्मगुणघाती कर्मों से रहित हुए हैं, सशरीर होने के कारण उनके शरीर से सम्बन्धित चार अघातीकर्म क्षय करने शेष हैं। उनकी आत्मा अभी पूर्णरूप से शुद्ध व सिद्ध नहीं हुई है। फिर भी आत्मिक गुणों में वे सिद्ध परमात्मा के समकक्ष हैं । सिद्ध परमात्मा को प्रथम स्थान देने के बदले अरहन्त परमात्मा को नवकार मन्त्र में जो प्रथम स्थान दिया गया है, उसके मुख्यतया कारण हैं-एक तो सिद्ध परमात्मा हमारे बीच में नहीं हैं। वे निरंजन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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