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परमात्मभाव से भावित आत्मा : परमात्मा | ३४१
वह परमात्मा को कैसे पहचान पायेगा ? इसीलिये एक विचारक कहता है
'जब तलक कोई 'आप' में, अपने को पाता नहीं । मोक्षपथ में तब तलक हर्गिज कदम जाता नहीं ।'
इसका तात्पर्य यह है कि जब तक अपनी आत्मा में अपने आपको कोई नहीं प्राप्त कर लेता - स्थिर नहीं कर लेता, तब तक मोक्ष ( परमात्मभाव ) को पाना तो दूर रहा, मोक्ष ( परमात्मभाव ) के मार्ग पर भी कदम नहीं रख पाता । इसी आशय की एक उर्दू सूक्ति है - 'खुद शनासी खुदा शनासी है ।' – अपने आपको जानना ईश्वर को जानना है । शास्त्रकार इसी दृष्टि से कहते हैं
'संपक्खए अपगमप एणं"
'शुद्ध आत्मा को आत्मा के द्वारा देखो -जानो - पहचानो ।'
शुद्ध आत्मा और वीतराग परमात्मा को एक मानो
शुद्ध आत्मा को अपने में जानने में साधारण आत्मा समर्थ नहीं होती । वह शरीर, इन्द्रियाँ, मन और आसपास के परपदार्थों के गोरखधन्धे में ही आसक्त होकर उन्हीं को अपना आत्मीय मान बैठती है अथवा वस्त्राभूषणों से सुसज्जित, तिलक छापे लगे हुए, अमुक ढंग से केशप्रसाधन किये हुए प्रभावशाली अथवा वाणी- विलास और बौद्धिक चातुर्य से युक्त किसी तथाकथित भगवान् या आचार्य को शुद्ध एवं पवित्र आत्मा मानने लगती है । अतः शुद्ध आत्मा को यथार्थ रूप से जानने-पहचानने के लिए श्रीमद् राजचन्द्र ने कहा
"आत्म-स्वभाव अगम्य ते अवलम्बन आधार । जिनपदथी दर्शावियो तेह स्वरूप प्रकार ॥ जिनपद निजपद एकता, भेदभाव नहीं कांई । लक्ष थवाने तेहनो कह्यां शास्त्र सुखदाई ॥| "
इसका भावार्थ यही है कि आत्मा के शुद्ध स्वरूप को पाना अत्यन्त दुष्कर है, उसके लिए जिनपद ( वीतराग अर्हन्त परमात्मा) का आलम्बन शास्त्र में बताया गया है, क्योंकि जिनपद और निजपद ( शुद्ध आत्मपद ) में साम्य है, कोई भिन्नता नहीं है । शुद्ध आत्मपद को सुखपूर्वक प्राप्त करने के लिए शास्त्रों में जिनपद ( वीतराग परमात्मा शब्द) को लक्ष्य बनाकर चलने का विधान किया गया है ।
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