Book Title: Appa so Parmappa
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 371
________________ ३५६ | अप्पा सो परमप्पा जीवनसम्पदा के बहमूल्य तत्वों से कोई लाभ नहीं उठाया। अब जीवन की सान्ध्यबेला में भी तू समझ जा और आत्मा के विकास, स्वभाव, स्वगुण एवं परमात्मतत्व-प्राप्ति के विषय में चिन्तन, मनन और स्वरूपाचरण कर। अपनी आत्मा को शुद्ध और पवित्र बना, और ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, रूप मोक्षमार्ग (परमात्मप्राप्ति के पथ) पर चलकर उसे आत्मगृणों से समृद्ध बना। अब तेरे जीवनदीप में आयुष्यरूपी तेल बिलकुल कम रहा है। इसलिए कब यह जीवनदीप बुझ जाये, कोई भरोसा नहीं। अतः जो कुछ भी आचरणीय, विचारणीय एवं करणीय है, उसे शीघ्र कर। इसमें क्षणमात्र का भी प्रमाद, आलस्य या टालमटूल मत कर । अब तू पिछली भूलों, अपराधों और दोषों का परिमार्जन-परिष्कार करने में जुट जा और साथ ही अपनी बहुमूल्य आत्म-सम्पदा को सँभालने और विकसित करने में लग जा । नहीं तो, बाद में मनःसंक्लेश कर पश्चात्ताप के सिवाय कुछ भी नहीं रहेगा।" । ये और ऐसे ही पवित्र परमात्मीय दिव्यसन्देश मनुष्य के अन्तःकरण से ही ग्रहण (Catch) किये जा सकते हैं, सूने जा सकते हैं। परमात्मा की पवित्र प्रेरणा, अन्तःस्फुरणा, एवं वत्सलता भी अपने हृदय से ही जानी-समझी जा सकती है। इसलिए हृदय को ही परमात्मा (शुद्ध आत्मा) के विराजने का सर्वाधिक उपयुक्त एवं उत्तम स्थान माना गया । हृदय में परमात्मा का निवास होते हुए भी कठोर व कलुषित क्यों ? हृदय मन का ही एक घटक है। एकेन्द्रिय प्राणियों के द्रव्यमन तो नहीं, भावमन होता है, उनका हृदय (भावमन) अत्यन्त सुषुप्त, मूच्छितसा होता है । अतः जैन, वैदिक आदि सभी धर्मों की धाराएँ यह मानती हैं कि प्रत्येक प्राणी के हृदय में परमात्मा (जैनदृष्टि से शुद्ध आत्मा) का निवास है । प्रश्न यह है कि जब प्रत्येक संसारी प्राणी के हृदय में परमात्मा का निवास है, तब अधिकांश छोटे-बड़े प्राणियों का हृदय कोमल और पवित्र रहने के बजाय कठोर, क्रूर एवं अपवित्र तथा कलुषित क्यों बन जाता है । कौन-से ऐसे कारण हैं कि अन्तःकरण में परमात्मा का निवास होते हुए भी अधिकांश प्राणी, विशेषतः मानव भी मलिन, पापिष्ठ, क्रूर; निर्दय, तथा हत्या, चोरी, डकैती आदि दुष्कर्मों के दुर्भावों तथा कषाय, काम, मोह आदि विभावों से आवृत हो जाता है ? क्यों नहीं, वह परमात्मा के दिव्य सन्देश, प्रभु की अमृतमयी दिव्यध्वनि को श्रवण एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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