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हृदय का सिंहासन : परमात्मा का आसन | ३५७
ग्रहण कर पाता? कदाचित् हृदयस्थ परमात्मा का भान होने पर भी अथवा उनकी आन्तरिक अव्यक्त दिव्यध्वनि (आवाज) सुनाई देने पर भी चोर, डाकू, हत्यारे आदि पापकमियों का हृदय क्यों नहीं बदल जाता? हृदय में परमात्मा के विराजमान होते हए भी कौन ऐसी शक्ति है, जो उन्हें न चाहते हुए भी बलात् विविध पापकर्मों में प्रेरित करती है ?
भगवद्गीता में भी इसी प्रकार का प्रश्न अर्जुन द्वारा उठाया गया है, और वहाँ उसका समाधान इस प्रकार किया गया है
काम एष क्रोध एष रजोगुण-समृदभवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध येनमिह वैरिणम् ॥ 'रजोगुण से उत्पन्न होने वाले ये विविध काम और क्रोध ही महान् पापी (पापकर्म में प्रेरित करने वाले) और महान् उदरम्भरी हैं। इन्हें ही इस विषय में (परमात्मा का दिव्यसन्देश सुनने में विघ्नकारक) वैरी समझो।'
जैनसिद्धान्त की दृष्टि से इसका समाधान यह है कि प्राणियों की आत्मा पर जब तक और जितने अंशों में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्र-मोहनीय, कर्म के पुद्गल छाये रहेंगे, तब तक उनके सम्यज्ञान, दर्शन एवं चारित्र तथा तप की शक्ति आच्छादित रहेगी। आत्मा अज्ञान, मोह, राग-द्वष, मिथ्यात्व, काम तथा क्रोधादि कषायों में रमण करता रहेगा। अपने सम्यज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, आत्मिक शक्ति आदि गुणों को उतने अंशों में प्रकट नहीं कर सकेगा। ऐसी स्थिति में जिस प्राणी के सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दृष्टि, सम्यकचारित्र की क्षमता एवं आत्मिक शक्ति सर्वांशतः, अधिकांशतः या अल्पांशतः आवृत होगी, वह उतने अंशों में परमात्मा का दिव्यसन्देश ग्रहण नहीं कर सकेगा। भगवद्गीता में भी इसी तथ्य को स्वीकार किया है
१ अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः । ___ अनिच्छन्नपि वाष्र्णेय बलादिव नियोजितः ॥
-भगवद्गीता अध्याय ३ श्लोक ३६ २ भगवद्गीता अध्याय ३ श्लोक ३७ ।
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