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हृदय का सिंहासन : परमात्मा का आसन | ३५५ यदि उस रिसीवर को दिव्यकर्ण से सटाकर एकाग्रचित्त से ध्यानपूर्वक सुना जाए तो प्रभु की दिव्यध्वनि के सन्देश सुने जा सकते हैं ।
कुछ परमात्मीय दिव्य-सन्देश, सन्देश ग्रहण के लिये सर्वोत्तम पात्र मनुष्य के लिये इस प्रकार है- 'हे मननशील मानव ! अमृतपुत्र! यह मानव जीवन इन्द्रिय विषय - सुखों के आसक्तिपूर्वक उपभोग करने, कषायों की बालक्रीड़ा, तृष्णा एवं मोहमाया तथा राग-द्वेष- अज्ञान के भंवरजाल में फँसकर व्यर्थ गंवा देने के लिये नहीं है । तुम्हें प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन, ज्ञान, आत्मिक आनन्द एवं आत्मशक्ति के दिव्य अनुदान का सदुपयोग करो, इन्हें निष्क्रिय बनाकर मत बैठो रहो, ज्ञानादि को आवार में परिणतक्रियान्वित करो। ज्ञानादि चतुष्टय की इस दिव्यसम्पदा एवं आत्मशक्ति को सुषुप्त एवं प्रच्छन्न मत रखो। इसे जागृत एवं विकसित रखो | इस दिव्य सम्पदा एवं आत्मशक्ति की चाबी तुम्हें मिल गई है । उसे पाकर विविध मदों में उन्मत्त होकर विषय कषायों के जंग से खराब, मलिन और बेकार मत बनाओ, किंतु आत्मा के स्वभाव और निजी गुणों की निधि खोलने, उसी में रमण करने का आनन्द पाने में लगाओ । आत्मा का सर्वोच्च विकास करो। इस दिव्य सम्पदा की महान् निधि को विषयवासनाओं, विषय-सुखों तथा काम, क्रोधादि विभावों दुर्भावों और परभावों की तुच्छ सम्पदा पाने में मत लगाओ। इस परमात्मीय हृदयमन्दिर में दुविचारों, दुर्भावों, दुश्चेष्टाओं एवं दुराचरणों के तुच्छ कीटाणुओं को मत घुसने दो। इसमें उच्च भावनाएँ एवं स्वभाव रमणता की विचारधारा संजोकर इस अमूल्य दिव्यसम्पदा को समृद्ध करो । अन्यथा काम, क्रोध, मद, मत्सर, मोह, लोभ, तुच्छ स्वार्थ, आदि के निन्दनीय एवं घृणित दुर्भाव उठते रहेंगे, विषयवासनाओं, विविध सांसारिक कामनाओं, तृष्णा और लालसा तथा सत्ता पद प्रतिष्ठादि की लोलुपता इत्यादि अनिष्ट दुर्भावनाओं का ज्वार उमड़ता रहेगा, राग-द्वेष एवं कषाय की तरंगें उछलती रहेंगी, जिनसे मेरा ( प्रभु का ) यह पवित्र, शुद्ध हृदय मन्दिर अपवित्र, अशुद्ध गन्दा एवं कलुषित होता जायेगा। फिर तुम मेरे (प्रभु के ) दिव्यसन्देश से वंचित हो जाओगे, परमात्म-प्राप्ति के पथ से भटक जाओगे । अतएव संसार की इस तुच्छ एवं विनश्वर सम्पदा को पाने के लिए अपनी महान् आत्मिक सम्पदा को बर्बाद मत करो ।
कभी-कभी ऐसी पावन आध्यात्मिक एवं जीवन-सम्बन्धी प्रेरणाएँ हृदयस्थित परमात्मा को दिव्यध्वनि के रूप में प्राप्त होती है - "ओ बुद्धिशील मानव ! तुझे देवदुर्लभ मानवजीवन मिला है। किन्तु तूने इस
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