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परमात्मभाव से भावित आत्मा : परमात्मा | ३३६
उन्हीं भावों से भावित आत्मा को जैन, बौद्ध, वैदिक आदि धर्मों के ग्रन्थों में 'भावितात्मा' कहा गया है, साथ ही उसकी योग्यता, क्षमता, सामर्थ्य और आत्मशक्ति का भी निरूपण किया गया है । 'नन्दीसूत्रचूणि' में कहा गया है-आत्मा जब विशुद्ध भावों से स्वयं को ओतप्रोत कर लेता है, तब उसमें (परमात्मभाव की) सुगन्ध आ जाती है। आत्मा को परमात्मभाव से भावित करना ही भावितात्मा का फलितार्थ है। 'आचारांग सूत्र' में इसी को 'स्थितात्मा (शुद्ध आत्मा में =परमात्मभाव में स्थित होने वाला बताकर उसके गुणधर्म बताए गये हैं कि 'इस प्रकार शुद्धआत्मभावों में रमण करने के लिये उत्थित (उद्यत) स्थितात्मा (भावितात्मा), पर-पदार्थों (परभावों एवं विभावों) के प्रति निरीह (निःस्पृह), शुद्ध आत्मभाव (पर. मात्मभाव) में अविचल, संयम में गतिशील (चल) एवं (परमात्मभाव से) बाह्य लेश्या से रहित होकर संसार में परिव्रजन (विचरण) करता है।
आत्मभाव में स्थिर होना ही परमात्मभाव में आना है तात्पर्य यह है कि आत्मभाव में स्थिर होना ही परमात्मभाव में आना है । इस दृष्टि से अपनी आत्मा में परमात्मत्व (सिद्धत्व) को स्थापित करना ही परमात्मभाव को प्राप्त करना है। यह तभी हो सकता है, जब व्यक्ति यह दृढ़ निश्चय कर लेता है कि परमात्मा और मेरी आत्मा के स्वभाव एवं गुणधर्म में कोई अन्तर नहीं है । एक आचार्य ने इसी तत्त्व का समर्थन करते हुए कहा है
यः परमात्मा स एवाऽहं, योऽहं स परमस्तथा ।
अहमेव मयाsराध्यः, नान्यः कश्चिदिति स्थितिः । 'जो परमात्मा है, वही मैं हूँ। तथा जो मैं हूँ, वही परमात्मा है । ऐसी स्थिति में मैं (शुद्ध आत्मा) ही मेरा आराध्य है, अन्य कोई नहीं।' इसका अर्थ यह नहीं है, कि साधक जीवन्मुक्त वीतराग परमात्मा (अरहंत) का जो बाह्य रूप है, उनके शरीर का सौष्ठव, बल, आकृति (संस्थान),
१ नन्दीसूत्र, चूणि २/१३ –विसुद्ध भावत्तण तोय सुगंधं । २ एवं से उठिए ठियप्पा, अणिहे अचले चले अवहिलेस्से परिव्वए ।
--आचारांग सूत्र १/६/५/६८६
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