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परमात्म-भाव से भावित आत्मा : परमात्मा | ३३७ अनुप्राणित होने लगी-'क्या मेरे पर भी कोई सिरछत्र है, किसी का आधिपत्य है ? नहीं, मैं अपना स्वयं अधिपति हूँ, मेरे पर मैं ही सिरछत्र हूँ। अपनी आत्मा पर दूसरों का आधिपत्य, दूसरों की सिरछत्रता ! नहींनहीं, मैं स्वयं अपना अधिपति तथा सिरछत्र बनूंगा।' बस, इन्हीं भावों के अनुरूप शालिभद्र के चिन्तन का दौर चला। उसने सोचा और निश्चय कर लिया-'इन्हीं पंचेन्द्रिय विषयों की सुख-सामग्री, धन-सम्पत्ति, जमीनजायदाद, भवन, वैभव आदि पर मेरी आसक्ति के कारण ही मेरे पर दूसरों का आधिपत्य है । अगर इन सबका हृदय से परित्याग कर दिया जाये और अपनी आत्मा को तप-संयम से भावित किया जाये तो मैं स्वयं अपना अधिपति, तथा पारमात्मिक ऐश्वर्य से सम्पन्न बन सक्तगा। और एक दिन जगत् ने सुना कि अपार वैभवशाली शालिभद्र ने धन-धाम, वैभव, भौतिक समृद्धि तथा अपनी प्रिय माता, भगिनी एवं बत्तीस सुकुमार रमणियों पर से आसक्ति भाव छोड़कर भगवान् महावीर के चरणों में मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली और अपनी आत्मा को तप-संयम से भावित करते हुए परमात्मभावों में विहरण करने लगे । इसी प्रकार के उल्लेख शास्त्रों में यत्र-तत्र मिलते हैं-'संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ'1-संयम और तप से वह साधक अपनी आत्मा को भावित करता हुआ (परमात्म. भावों में) विहरण करता है।
चन्दनबाला एक खरीदी हुई दासी थी। उसकी मालकिन मूला सेठानी ने उसे घोर विपन्नावस्था में डाल दिया था, परन्तु उस समय भी वह अपनी आत्मा को परमात्मभावों से भावित करके रहो। फलतः समभाव से भावित चन्दनबाला की आत्मा भगवान् महावीर के चरणों में दीक्षित व समर्पित हो गई। जैसे-वह विपन्नावस्था में समभाव में मग्न रही और वैसे ही भगवान् महावीर के साध्वी संघ की अधिष्ठात्री बन गई, तब भी अहंत्व-ममत्व से रहित होकर समत्व में स्थिर रही । यही कारण है, कि परमात्मभावों से भावित महासती चन्दनबाला एक दिन सिद्ध-बुद्धमुक्त परमात्मा बन गई।
व्याख्या-प्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र में भावितात्मा की क्षमता, शक्ति
१ (क) उपासकदशा सूत्र १/७६ ।
(ख) सुखविपाक सूत्र अ० १ । (ग) भगवती सूत्र ।
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