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परमात्मभाव से भावित आत्मा : परमात्मा | ३४७
भी प्रवेश न पा सकें। जो भी दुर्भावों या रागद्वषादि विभावों के परमाणु आयें, वे बाहर ही बाहर टकराकर वापस लौट जाएँ, वे अन्तरात्मा में प्रविष्ट नहीं हो सकें, इतनी क्षमता और शक्ति परमात्मभावों से भावित साधक में आ जानी चाहिए।
__भगवद्गीता में भी आत्मा को परमात्मभावों से भावित करने की प्रेरणा दी गई है
तबुद्धयस्तदात्मानस्तनिष्ठास्तत्परायणाः।
गच्छन्त्यपुनरावृत्ति ज्ञाननि त कल्मषाः ।। जिनकी बुद्धि तद्रूप है, यानी परमात्मभावरूप हो जाती है, जिसका अन्तरात्मा सच्चिदानन्दधन परमात्मा में निमग्न है, परमात्मस्वरूप में ही जिनकी निष्ठा है, जो परमात्म-परायण हैं, परमात्मा के प्रति एकीभाव से जिनकी आत्मा भावित हो गई है, वे सम्यग्ज्ञान से अपने मनवचन-काया के समस्त कलुषों (सावद्य योगों) को नष्ट कर देते हैं और वे अपुनरावृत्ति रूप ( जन्म-मरण से रहित-सिद्धि) परमगति को प्राप्त होते हैं।
परमात्मभावों से भावितात्मा का व्यावहारिक रूप इस प्रकार होना चाहिए
'नमो अरहताण' का उच्चारण करने के साथ ही साधक की चेतना में अरहन्त के द्रव्य, गुण और पर्याय स्वतः स्फुरित हो जाएँ। द्रव्यदृष्टि से अर्हन्त की शान्त, सौम्य'; प्रसन्न, शुद्ध, निर्विकार, स्वच्छ मूर्ति (छवि) अन्तर में प्रतिष्ठित हो जाए। गुणदृष्टि से अरहन्त के अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त आत्मिक आनन्द और अनन्त आत्मिक शक्ति से अन्तरात्मा ओत-प्रोत हो जाए, तथा पर्यायदृष्टि से ज्ञान, दर्शन, चारित्र और आत्मवीर्यगुणों के विभिन्न परमाण (क्रमभावी पर्याय) की लहरें तन-मन-नयन को आप्लावित करने लगें। सारी की सारी चेतना 'अर्हत्' कहते ही पारमात्मिक वैभवऐश्वर्य से झंकृत हो उठे। ऐसा अभ्यास हो जाना चाहिए । अर्हत् प्रभुकहने पर उनके वीतरागता, समता, सर्वज्ञता, क्षमा आदि गुणों एवं पर्यायों को तथा उनके व्यक्तित्व को विश्लेषण करके बार-बार दोहराना न पड़े । कानों में अर्हत्-परमात्मा की ध्वनि पड़ते ही सारी चेतना अर्हत्परमात्ममय हो जाए उनके विशेषणों को दोहराना न पड़े। इस प्रकार जब अपनी अन्तरात्मा में
१ भगवद्गीता अ. ५ श्लो. १७
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