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१६८ | अप्पा सो परमप्पा
है-सृष्टि को दुःख, रोग, भय, शोक, सन्ताप, आकस्मिक संकट आदि से परिपूर्ण बनने का ? ऐसा ईश्वर दयालु एवं परोपकारी कहाँ रहा ?
ईश्वर दयालु और परमपिता कहलाता है तो वह सर्प, व्याघ्र, सिंह, भेड़िया आदि हिंसक पशुओं, पापी एवं अत्याचारी मनुष्यों एवं द्रोह, मोह, दुर्व्यसन, चोरी, डकैती, ठगी, लूटपाट, हत्या आदि पापों एवं अपराधों से परिपूर्ण, नाना दुःखों से व्याप्त सष्टि के निर्माण की इच्छा वह कर ही कैसे सकता है ? यदि करता है तो वह दयालु, परोपकारी अथवा परमपिता कैसे कहला सकता है ? कोई भी दयालु पिता अपनी सन्तान को दुःखी नहीं देख सकता । जिस दुनिया को दुःखी और संतप्त देखकर हमारा भी हृदय भर आता है, वैसी दुनिया को बनाते समय यदि ईश्वर को दया नहीं आई तो उसे दयालु कैसे कहा जा सकता है ? ईश्वर की यह लीला कैसी ?
यदि कहें कि यह तो ईश्वर की लीला है । यह लीला है या क्रूरता? बेचारे संसारी प्राणी दुःख, सन्ताप, रोग, शोक, बाढ़, दुष्काल, भूकम्प आदि के भयंकर त्रास से पीड़ित होकर विलाप और रुदन करते रहें और ईश्वर ऐसी दुःखी दुनिया बनाने की लीला करे ? इस विनाशकारी लीला को कोई भी भला व्यक्ति इन्सानियत न कहकर शैतानियत एवं हैवानियत ही कहेगा। सृष्टिकर्ता ईश्वर वीतराग एवं स्वभावनिष्ठ कहाँ रहा ?
ईश्वर को वीतराग (रागद्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, पक्षपात आदि से सर्वथा रहित) माना जाता है। जब ईश्वर रागद्वेष से सर्वथा शून्य है तो सृष्टि-रचना करने के प्रपंच में और सृष्टि को बनाने और बिगाड़ने के झंझट में क्यों पड़ता है ? जो सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा हो जाता है, वह स्वभाव में ही रमण करता है, परभावों में विभावों में बिलकुल जाता ही नहीं। यदि ईश्वर सृष्टि को बनाने के प्रपंच में पड़ेगा तो सदैव सर्वत्र रागद्वष आदि विभाव एवं परभाव में ही रत रहेगा, स्वभाव से हटकर सामान्य संसारी मानव जैसा बन जायगा। चूंकि सृष्टिरचना के प्रपंच में पड़ने पर उसे किसी को सुखी, किसी को दुःखी, किसी को धनी, किसी को निर्धन, किसी को मूर्ख, किसी को बुद्धिमान, कहीं सर
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