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आलम्बन : परमात्म-प्राप्ति में साधक या बाधक ? | ३२७ थोपना चाहे अथवा सम्यक्चारित्र के नाम से युगबाह्य,सिद्धान्तविरुद्ध, संवरनिर्जरा प्रतिपक्षी, सद्धर्म से विपरीत, आत्मविकासघातक, वृथाकष्टकारी, निरर्थक आडम्बरयुक्त तप आदि क्रियाकाण्डों को लादना चाहे तो इन्हें भी व्यावहारिक दृष्टि से शुद्ध आलम्बन नहीं कहा जा सकता। व्यवहारदृष्टि से सुदेव, सुगुरु एवं सद्धर्म आदि परमात्मभाव (मोक्ष) या शुद्ध आत्मभाव की ओर ले जाने वाले पुष्ट या पवित्र आलम्बन ही जलसन्तरण के लिए नौका की तरह कथंचित् शुद्ध एवं उपादेय हो सकते हैं । यद्यपि पूर्णतः शुद्ध आलम्बन तो आत्मा का ही हो सकता है, क्योंकि वही नित्य, शुद्ध और अभिन्न आलम्बन है।
शुद्ध आलम्बन का अर्थ व्यवहारदृष्टि से यह भी सम्भव है-शुद्ध रूप से आलम्बन यानी देव, गुरु, धर्म आदि सच्चे हों, साथ ही दुष्ट आशय से, गलत रूप से स्वार्थ, दम्भ, छलछिद्र, आडम्बर,यशोलिप्सा, पद-प्रतिष्ठालोलुपता, प्रमाद-आलस्य-वृद्धि, सुख-सुविधाप्राप्ति, अधर्माचरण प्रवृत्ति, पापाचरण या स्वकृत-पापकर्म के आच्छादन आदि विपरीतभाव से तथा क्रोध, द्रोह, ईर्ष्या-अहंकारवश उनका आलम्बन ग्रहण है जो अन्तिम लक्ष्यप्राप्ति में बाधक है। आलम्बन के नाम से चाहे जितने पवित्र नाम से कोई थोपना चाहे, यदि वे मायाजाल में फंसाने वाले, दम्भवर्द्धक प्रपंचमय हैं तो त्याज्य समझने चाहिए ।
परन्तु शुद्ध आशय से अगर कोई किसी आलम्बन को ग्रहण करता है तो वह बाह्य आलम्बन भी शुद्ध है । ज्ञानादि की साधना करते समय शरीरादि की दुर्बलता, व्याधि, संकट आदि के अवसर पर उत्सर्गमार्ग को ध्यान में रखते हुए भी यदि कोई साधक अपवादमार्ग का आलम्बन लेता है, तो वह आलम्बन भी शुद्ध माना जाता है । व्यवहारभाष्य में कहा
सालम्ब सेवी समुवेइ मोक्खं 1 इसका भावार्थ यह है कि जो साधक ज्ञानादि किसी विशिष्ट हेतु से अपवादमार्ग का आलम्बन लेता है तो वह भी मोक्ष (परमात्मभाव) को प्राप्त कर सकता है।
परन्तु ये सब आलम्बन तभी तक ग्राह्य हैं, जब तक साधक साधना
१ व्यवहारभाष्य पीठिका १८४
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