Book Title: Appa so Parmappa
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 345
________________ ३३० | अप्पा सो परमप्पा प्राप्त करने के लिए उसने व्यावहारिक ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप का तथा साधुवेष आदि बाह्य पदार्थों का आलम्बन लिया था। परन्तु वह सुखसुविधा एवं मोहक प्रलोभनों में एवं अन्त में, मागधिका गणिका में आसक्त हो गया । फलतः संयम से भ्रष्ट और पतित हो गया। परमात्मा बनने के बदले वह बहिरात्मा हो गया । इसी प्रकार जहाँ आत्मिक दृष्टि से दुर्बल साधक के लिए शास्त्र में साधक को संघ (गण), एवं गुरु आदि का आलम्बन बताया है, वहाँ उसका उद्देश्य भी बताया है कि "जिस प्रकार किसी आलम्बन के सहारे दुर्गम गर्त आदि में गिरता हआ व्यक्ति अपने को सुरक्षित रख सकता है, इसी प्रकार ज्ञानादिवर्धक किसी विशिष्ट हेतु का आलम्बन लेकर अपवाद (सालम्बन) मार्ग में उतरता हआ साधक भी यदि निश्छल-सरल भाव रखे तो वह अपनी आत्मा को दोषों से बचा सकता है। दुर्बलतावश आलम्बन लेकर यदि निरहंकार, सरल, निश्छल एवं जागृत न रहे तो उसका पतन निश्चित है। शास्त्र में एक ओर तो दुर्बल साधु के लिए सहचारी सामि साधकों का आलम्बन लेने का विधान है, परन्तु दूसरी ओर यह भी बताया गया है कि यदि सद्गुणों में अपने से अधिक अथवा सद्गुणों में समान साथी साधक न मिले तो काम भोगों में अनासक्त रहकर पापकर्मों से दूर रहता हुआ एकाकी (द्रव्य और भाव से एकमात्र आत्मावलम्बी) होकर विचरण करे ।" परन्तु एकाकी होकर विचरण करने वाले साधक के लिए जो कड़ी शर्ते उसकी अर्हता के लिए रखी हैं, उनकी ओर ध्यान देना आवश्यक है। अगर वैसी योग्यता नहीं है, आत्मा ज्ञानादि गुणों से उतनी परिपूष्ट और समृद्ध नहीं है किन्तु किसी पदलोलुपता, प्रतिष्ठा, स्वच्छन्दता, स्वार्थसिद्धि, सुखसुविधा या स्वकीय आचार शिथिलता अथवा ज्ञानादि के मद तथा अहंकार के वशीभूत होकर संघ, साधर्मिक साधु तथा गुरु आदि का वह आलम्बन छोड़ता है और एकाकी विचरण करता है तो वह एकाकीपन साध्य प्राप्ति में अत्यन्त बाधक है। ऐसा एकाकीपन साधक को प्रमाद और पाप की ओर ले जाने वाला, पतनकारक है, आसक्तिवर्द्धक है। १ सालंबणो पडतो, अप्पाणं दुग्गमेऽवि धारेइ । ___ इअ सालंबण-सेवा धारेइ जई असढभावं ।। -आवश्यकनियुक्ति ११८० २ न वा लभेज्जा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा। एगो वि पावाई विवज्जयंतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो । -उत्तराध्ययन ३२/५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422