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आलम्बन : परमात्म प्राप्ति में साधक या बाधक ? | ३२६ होता, वह किसी से भी अपराजित साधक निरालम्बनता (किसी भी वाह्य आलम्बन के बिना) से रहने में समर्थ होता है।
उत्तराध्ययन सूत्र में सहाय (बाह्यालम्बन) का प्रत्याख्यान (त्याग) का महत्त्व बताते हए भगवान् महावीर ने कहा-सहाय (बाह्य सजीवनिर्जीव आलम्बन) का त्याग करने से जीव (आत्मार्थी साधक) एकीभाव (आत्मा के साथ एकत्व) को प्राप्त कर लेता है । एकीभावभूत जीव एकत्व भावना में भावित होता हुआ अल्प शब्दी (कम बोलने वाला, प्रायः मौन धारण करके रहने वाला) हो जाता है। उसके बाह्य झंझट, प्रपंच, आडम्बर आदि कम हो जाते हैं । कलह, कषाय, अहंत्व-ममत्व आदि भी अत्यन्त कम हो जाते हैं। उसके जीवन में संयम और संवर की प्रचुरता हो जाती है। फलतः वह आत्म-समाधिस्थ हो जाता है।
वस्तुतः किसी भी सजीव-निर्जीव बाह्य आलम्बन के लेने में साधक को अत्यन्त विवेकी और सावधान रहना चाहिए। यदि वह उत्तम से उत्तम बाह्य आलम्बन लेकर स्वयं सावधान, जागृत और अप्रमत्त नहीं रहता है, पापकर्मों की ओर फिसलती हई अपनी आत्मा की रक्षा नहीं कर सकता है तो उसे कोई नहीं तार सकता, वह भ्रष्ट और पतित हो सकता है। यदि स्वयं की आत्मा जागरूक होकर पुरुषार्थ न करे तो संघ आदि कोई भी आलम्बन उस साधक को तार नहीं सकता। एक आचार्य ने कहा है
संघो को वि न तारेइ कटठो मूलो तहव अन्नो वा ।
अप्पा तारेइ अप्पा,
काष्ठा संघ, मूल संघ या द्राविड़, यापनीय आदि अन्य कोई भी संघ आत्मा को नहीं तार सकता । आत्मा ही आत्मा को तारता है।
'कूलबालुक' नाम का एक उत्कृष्ट साधक था। नदीतट पर स्वयं एकाकी रहकर वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, संयम की उत्कट साधना करता था। रत्नत्रय की उत्कष्ट साधना द्वारा मोक्ष (परमात्मभाव) को
१ अणभिभूए पभू निरालंबणयाए, जे महं अनहिमणे ।
-आचारांग सूत्र श्रु, १/अ. ५ गा. ६ २ 'सहाय-पच्चक्खाणे णं, भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? स० एगीभावं जणयइ ।
एगीभावभूए वि य णं जीवे एगत्त भावेमाणे अप्पसद्दे अप्पझंझे अप्पकलहे अप्पकसाए अप्पतुमंतुमे संजमबहुले संवर-बहुले समाहिए या वि भवइ ।"
-उत्तराध्ययन सूत्र २६/३६
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