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३२६ | अप्पा सो परमप्पा
तथा आत्मिक दुर्बलता को मिटाने, आत्मा को पुनः पुनः जगाने, प्रमाद दूर करने एवं आत्मा को शुद्ध बनाने और परमात्मपद को पाने के लिए तीव्र उत्सुक एवं प्रयत्नशील है, उसे शरीर, षट्कायिक जीव, गण (संघ), शासक, धर्माचार्य, गृहपति तथा देवाधिदेव अरिहंत, निर्ग्रन्थ गुरु एवं सद्धर्म एवं सुशास्त्र आदि का आलम्बन लेना आवश्यक है। उत्तराध्ययन सूत्र में मोक्ष (परमात्मपद) प्राप्ति के लिए, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप, इन चारों के संयुक्त मार्ग (सद्धर्म) को आलम्बन बताया है । शुद्ध आशय से इन और ऐसे ही बाहा आलम्बनों को लेने में कोई दोष नहीं है । शुद्ध बाह्य आलम्बन भी कैसे, क्यों और कब लेने चाहिए ?
अपूर्ण साधक व्यावहारिक दृष्टि से वीतराग देव, सद्गुरु और सद्धर्म का आलम्बन लेता है। व्यवहान्दृष्टि से मोक्षलक्ष्यी (परमात्मभावलक्ष्यी) आलम्बन के रूप में व्यवहार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यक् तप (सद्ध म) ग्रहण किये जाते हैं ।
परन्तु आत्मार्थी साधक को इन सबका आलम्बन लेने से पूर्व पूरी तरह जांच-पड़ताल कर लेनी चाहिए। व्यावहारिक दृष्टि से जो भी बाह्य आलम्बन लिये जाएँ, उसके पीछे आत्मार्थी साधक का अन्तिम उद्देश्य, दष्टि और कारण स्पष्ट होना चाहिए और यह विवेक करना चाहिए कि मैं जिन देव, गुरु, धर्म, शास्त्र या ज्ञानादि चतुष्टय रूप धर्म का आलम्बन ले रहा हूँ, वे वीतरागता, पूर्णता, पूर्णसमत्व, परमात्मभाव, मोक्ष या शुद्ध आत्मभाव की ओर ले जाने वाले हैं या साम्प्रदायिक कट्टरता, सम्प्रदाय मोह, कलह, कद ग्रह, राग-द्वेष, संघर्ष आदि बढ़ाने वाले हैं ? अगर वे आलम्बन तथाकथित देव, गुरु, धर्म, शास्त्र या ज्ञानादि सद्धर्म के नाम से उपद्रव, सिरफुटोवल, झगड़े, फूट, दम्भ, अभिमान, मद, छिद्रान्वेषण, छलकपट या दम्भ आदि बढ़ाने या पैदा करने वाले हों तो उन्हें व्यवहारदृष्टि से भी शुद्ध आलम्बन कहना अनुचित है। तथाकथित सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) के नाम से गुरुडमवाद, अहंपोषक, स्वव्यक्तित्वपोषक,अन्धश्रद्धापोषक मिथ्या परम्पराएँ, साम्प्रदायिकता,कुरूढ़ि, मिथ्यामान्यताएँ, एकान्तवाद, कदाग्रह, कलहवर्द्धक सम्यक्त्व को आलम्बन के रूप में कोई स्वीकार करने का कहे, सम्यग्ज्ञान के नाम से उन्मार्गगामी, अन्धविश्वासपोषक या भौतिकज्ञान या मिथ्याज्ञा न अथवा सावद्यमार्ग की ओर ले जाने वाले विषमतावर्द्धक आत्म बाह्य ज्ञान या वैसे शास्त्रों को आलम्बन के रूप में
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