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३२४ | अप्पा सो परमप्पा
अर्थात्--पत्नी भार्या (भरण-पोषण करने वाली), धर्मसहायिका, धर्मसहचारिणी, धर्म में अनुरक्त, सुख-दुःख से समानसहायिका होती है।
इसी प्रकार परिवार में माता-पिता एवं दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, बड़ी बहन, भाई-भाभी आदि भी बालकों एवं युवकों को धर्मसहायक, धर्माचरण की प्रेरणा देने वाले, धर्म में स्थिर करने वाले तथा धर्ममार्ग बताकर धर्म संस्कार सुदृढ़ करने वाले होते हैं, इसलिए वे भी धर्मार्थी के लिए आलम्बन रूप हैं।
इन सब आलम्बनों का समावेश गाथापति वर्ग के आलम्बन में हो जाता है। धर्माचार्य धर्माचरणकर्ता के लिए विशिष्ट आलम्बन हैं
धर्माचार्य धर्मसाधक गृहस्थ और साधु दोनों के जीवन के लिए विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण आलम्बन है। धर्माचार्य का आलम्बन लिए बिना धर्मसाधक का जीवन अस्त-व्यस्त, मर्यादाभ्रष्ट, आचार-संहिता की लीक से दर हो सकता है। संघ में सभी साधु या साध्वी ज्ञानादि पांचों आचारों का पालन करने में पूर्ण समर्थ नहीं होते, कई नवदीक्षित होते हैं, कई तपस्वी नहीं होते, कई अल्पशिक्षित होते हैं, कई शरीर से दुर्बल, वृद्ध, अशक्त या रोगी होते हैं, उन सब के लिए संघ का आचार्य या धर्मगुरु यथायोग्य सेवा की व्यवस्था करता है, उनको सारणा, (कर्तव्य का स्मरण कराना), वारणा (अकर्तव्य करने से रोकना), धारणा (साध्वाचार के मौलिक नियमों एवं परम्पराओं को ग्रहण कराना, त्याग-प्रत्याख्यान कराना), चोयणा (सेवा, तपस्या, दोषशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त आदि की प्रेरणा देना) तथा पडिचोय णा (भूल होने पर कठोरता के साथ शिक्षा देना) करता है । साधुवर्ग को ग्रहण शिक्षा एवं आसेवना शिक्षा के हेतु भी धर्माचार्य या धर्मगुरु (दीक्षागुरु) का आलम्बन लेना आवश्यक होता है । धर्माचार्य का आलम्बन इसलिए भी आवश्यक है कि साधुवर्ग या श्रावकवर्ग के जीवन में या संघ में कहीं भी कोई दोष, अपराध या भूल हुई हो तो धर्माचार्य उसे सावधान करके दोष निवारण की सूचना देता है। उसे धर्म का शुद्ध मार्ग सुझाता है। शुद्ध आलम्बन का फलितार्थ और विवेक
योगीश्वर आनन्दघनजी ने परमात्मप्राप्ति के लिए शुद्ध आलम्बन की प्रेरणा देते हुए कहा है
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