Book Title: Appa so Parmappa
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 340
________________ आलम्बन : परमात्म-प्राप्ति में साधक या बाधक ? | ३२५ "शुद्ध आलम्बन आदरे, तजी अवर जंजाल रे । "1 परमात्मप्राप्ति के इच्छुक मुमुक्षु को अन्य सब प्रपंच छोड़कर पूर्वोक्त सभी आलम्बनों में जो शुद्ध आलम्बन हो, उसे ही ग्रहण करना चाहिए । शुद्ध आलम्बन का निश्चयदृष्टि से अर्थ होता है - जो शुद्ध आत्मस्वरूपलक्ष्यी हो, परमात्मलक्ष्यो हो अथवा मोक्षलक्ष्यी हो । निश्चय दृष्टि से तो शुद्ध आलम्बन एकमात्र शुद्ध स्वरूपलक्ष्यी आत्मा ही हो सकता है । जिसमें अन्य विकल्पों का जाल न हो। वह आलम्बन शुद्ध आत्मा का ज्ञान, शुद्ध आत्मस्वरूपदर्शन तथा अखण्ड आत्मस्वरूप में रमणरूप चारित्र ही सम्भव है | वही वास्तव में स्वावलम्बन है । शुद्ध आलम्बन में किसी प्रकार का आडम्बर, प्रपंच, स्वार्थ, कामना, धोखाधड़ी, ठगी या मायाजाल नहीं होना चाहिए ! इसी प्रकार शुद्ध आलम्बन राग, द्व ेष, कषाय, मोह, मद, मत्सर आदि के परिणामों से रहित होना चाहिए। जिस आलम्बन से साधक दुर्गतियों में भटकता हो, जो आलम्बन संसार - परिभ्रमण का कारण हो, जिससे जीवन पतन की ओर जाता हो, जो आलम्बन मनुष्य को सदा के लिए परावलम्बी बनाए रखता हो, उसे शुद्ध आलम्बन नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार जो आलम्बन परमात्मप्राप्ति में सहायक न हो, अथवा जो परमात्मा से विमुख करता हो, वह भो अशुद्ध आलम्बन है । अपूर्ण व दुर्बल के व्यवहारदृष्टि से शुद्ध आलम्बन एक दृष्टि से देखा जाए तो शुद्ध, आत्मा के सिवाय किसी दूसरे का आलम्बन परावलम्बन है। शुद्ध आत्मा का आलम्बन लेने से किसी दूसरे से सहायता की याचना करने की तथा दूसरे को रिझाने की दृष्टि से अतिशयोक्तिपूर्ण गुणगान करने की आवश्यकता नहीं रहती । परन्तु जहाँ तक शरीर साथ में है, वहाँ तक किसी दूसरे का आलम्बन लेना ही पड़ता है । यों देखा जाए तो आलम्बन शब्द हो परसापेक्ष या परापेक्षित है । आत्मशक्ति को न्यूनता ही आलम्बन की अपेक्षा रखती है। साधक में जब तक अपूर्णता है, जिस साधक की आत्मा अभी सम्यग्ज्ञानादि चतुष्टय में पिछड़ी हुई है, दुर्बल है, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, इन चारों आत्मगुणघाती कर्मों से आच्छादित है, जो अभी कषायों और राग-द्व ेष-मोहादि से मुक्त नहीं है, परन्तु जो संसार-समुद्र से पार होना चाहता है, इन सब विकारों, कर्मों आनन्दघन चौबीसी, शान्तिनाथ स्तवन गा. ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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