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परमात्मा को कहाँ और कैसे देखें ? | २१३
'न ह जिणे अज्ज दिस्सइ "
'गौतम ! आज तुझे जिन ( वीतराग परमात्मा) नहीं दीखते ।' प्रश्न होता है, जब तीर्थंकर ( जिनेन्द्र ) परमात्मा स्वयं साक्षात् विद्यमान थे, तब उन्होंने गौतमस्वामी से क्यों कहा कि "तुझे जिन ( वीतराग) परमात्मा नहीं दिखाई देते ?" इस कथन का क्या रहस्य है ?
इसका रहस्य यह है कि भगवान् महावीर वीतराग जिनेन्द्र- केवलज्ञानी परमात्मा थे और गोतमस्वामी अभी छद्मस्थ (अपूर्णज्ञानी) साधक थे । केवलज्ञानी वीतराग परमात्मा को केवलज्ञानी वीतराग (पूर्णज्ञानी) ही देख सकता है, छद्मस्थ अपूर्णज्ञानी नहीं । अगर गौतमस्वामी, जो उस समय छद्मस्थ थे, केवलज्ञानी महावीर परमात्मा को देख लेते, तब तो वे स्वयं उसी समय केवलज्ञानी कहलाते ।
अगर गौतम स्वामी केवलज्ञानी होते तो वीतराग तीर्थंकर महावीर परमात्मा उन्हें ऐसा उपदेश नहीं देते। आचारांग सूत्र में कहा गया है'उद्देसो पासगस्स णत्थि "
"सर्वज्ञ (केवलज्ञानी) के लिए उपदेश नहीं होता । "
इस सूत्र से स्पष्ट है कि गौतमस्वामी उस समय केवलज्ञानी नहीं थे, छद्मस्थ ( अपूर्णज्ञानी ) थे । इसी कारण उन्हें पूर्णता प्राप्त करने का उपदेश ही पूर्वोक्त वाक्य (न हु जिणे अज्ज दिस्सइ) से फलित होता है । वीतराग परमात्मा महावीर के कथन का आशय यह है कि " गौतम ! तेरी छद्मस्थ अवस्था के कारण मैं जिन केवलज्ञानी तुझे नहीं दीखता । मेरा जिनत्व = वीतराग परमात्मत्व तुझे दृष्टिगोचर नहीं होता, क्योंकि तू इस शरीर को इस बाह्य भौतिक ऋद्धि-समृद्धि, आदि को जिन समझ रहा है, किन्तु ये शरीरादि जिन नहीं हैं। कहा भी है
'जिनपद नहीं शरीर को, जिनपद चेतन मांय | जिन वर्णन कछु और है, यह जिनवर्णन नांय ॥ ३
पूर्वोक्त भगवद्वाक्य का यह अर्थ नहीं है कि जिन ( वीतराग )
१ उत्तराध्ययन सूत्र अ. १० गा. ३१
२ आचारांग सूत्र, १ श्रु. अ. २ उ. ३ सू. २५
३ श्री जवाहराचार्य : जवाहरकिरणावली, भा. ४
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