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आलम्बन : परमात्म-प्राप्ति में साधक या बाधक ? | ३०६
इस परमात्मतत्व में निश्चय सम्यग्दर्शन से लेकर सिद्धि-मुक्ति= परमात्म-पद-प्राप्ति तक की सभी भूमिकाएँ समाविष्ट हो जाती हैं । परमात्मतत्व के आलम्बन से शुद्ध (निश्चय) रत्नत्रय प्रकट किया जा सकता है । परमात्मतत्व का आश्रय (आलम्बन) ही शुद्ध सम्यग्दर्शन है, वही सम्यग्ज्ञान है और वही सम्यक् वारित्र है । परपदार्थों की चिन्ता (रमणता) छोड़कर एकमात्र अपनी आत्मस्वरूप का हो ज्ञान, अपनी आत्मा का ही श्रद्धान और वित्त को अन्य विकल्पों से रहित करके स्वरूप में जोड़कर उसी में लीन करना ही सम्पकवारित्र है। यह है-निश्वधरत्नत्रयाअभेद रत्नत्रयी। इसलिए समयसार में कहा गया है
'आदा खु मज्झ णाणं आदा मे दंसणं चरित्तं च । मेरा अपना आत्मा ही ज्ञान (रूप) है, मेरा आत्मा ही दर्शन और चारित्र है।
यही निश्चयदृष्टि से शुद्ध (सत्यार्थ) सामायिक, प्रतिक्रमण, उत्कीर्तन वन्दना, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त, आवश्यक, महाव्रत, समितिगुप्ति, तप, संयम, धर्म, संवर-निजरा, धर्म-शुक्लपान आदि सब हैं। माक्ष (परमात्मभाव) का कारणरूप ऐसा एक भी भाव नहीं है, जो परमात्मतत्व के आलम्बन से पृथक् है।
परमात्मतत्व का तीन भागों में वर्गीकरण परमात्मतत्व के शुद्ध ध्र व आलम्बन को तीन विभागों में वर्गीकृत किया जा सकता है--(१) इसका जघन्य आलम्बन निश्चयसम्यग्दर्शन है। (२) मध्यमकोटि का आलम्बन है-शुद्ध देशचारित्र और सकलचारित्र आदि दशाएँ और (३) तीसरा है –पूर्ण आलम्बन । पूर्ण आलम्बन होते हो सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व (केवलज्ञान केवलदर्शन) और सिद्धत्व (परमात्म पद) प्राप्त करके आत्मा सर्वथा कृतार्थ हो जाती है । जितना-जितना पर• मात्मतत्व यानी शुद्ध आत्मभाव का आलम्बन लिया जाएगा, उतनी-उतनी रत्नत्रय की भक्ति है, वही रत्नत्रय रूप धर्म है, मोक्षमार्ग है-परमात्म
१ समयसार गा. २३७ २ आदा धम्मो मुणेदव्वो।
---प्रवचनसार १/८
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