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३१६ / अप्पा सो परमप्पा
(३) राज्य शासनकर्ता, (४) धर्माचार्य और (५) गाथापति (गृहस्थ)। दीर्घ दृष्टि से विचार करने पर व्यावहारिक दृष्टि से साधक के लिए इन पांचों का आलम्बन ग्रहण करना उचित जान पड़ता है। सद्धर्मसाधक के लिए षटकायिक जीवों का आलम्बन
सद्धर्माचरण-कर्ता के जीवन में सर्वप्रथम षट्कायिक जीवों (विश्व के समस्त प्रागियों) को आलम्बन (आश्रय=निश्राय) रूप कहा है तत्त्वार्थ सूत्र में भी कहा गया है
'परस्परोपग्रहो जीवानाम् । 'जीवों का स्वभाव परस्पर एक-दूसरे का उपग्रह = उपकार करना है।' 'बरण्ड रसैल' ने एक पुस्तक लिखी है-The world as I see it (संसार : जैसा कि मैं देखता हूँ )। इस पुस्तक में उसने बताया है कि जब मैं अपने जन्मकाल से अब तक के जीवन पर दृष्टिपात करता है, तो मुझे ऐसा लगता है कि मैंन छोटे-बड़े अगणित जीवों से सहायता ली है। अगर ये जीव मुझे जीवन जीने, विकास करने तथा संवद्धित होने में सहयोगी (आलम्बनदाता) न बनते तो शायद ही मैं जिन्दा रह सकता और इतना विकास कर पाता।
धर्मसाधक के जीवन में भी एकेन्द्रिय जीवों से पंचेन्द्रिय तक असंख्य जीव आलम्बनदाता (सहायक) बनते हैं । पृथ्वी, पानी, वायु, वनस्पति एवं अग्नि के जीव साधक जीवन में पद-पद पर सहायक बनते हैं ? उनके आल. म्बन के बिना वह अपने जीवन को स्वस्थ, सशक्त, प्राणवान् और सर्वांगीण विकासशील कैसे रख पाता? यह तो ठीक, परन्तु द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का धर्म-साधक के जीवन में क्या सहयोग है ? उनका कैसे और क्या उपकार या आलम्बन है ? सच पूछे तो रत्नत्रयरूप या अहिंसा-संयम-तपरूप धर्म का आचरण करने में एकेन्द्रिय से लेकर तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, नारक और देव, इन सबका आलम्बन प्रेरणारूप में लिए बिना धर्मसाधक एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। सर्वप्रथम प्रेरणात्मक आलम्बन यह है कि सर्वज्ञ वीतराग प्ररूपित शास्त्रां में कथित इन सबकी
१ धम्मस्स णं चरमाणस्स पंचठाणा निस्सिया पण्णत्ता, तंजहा-छक्काया, गणे, राया, धम्मायरिए, गाहावइ ।
-स्थानांग सूत्र स्था. ५ २ तत्त्वार्थ सूत्र
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