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आलम्बन: परमात्म-प्राप्ति में साधक या बाधक ? | ३१५
अभिप्राय यह है कि जो साधक दुर्बल है, आत्मशक्ति एवं ज्ञान से न्यून है, वही अपने तप, संयम के पालनार्थ एवं तप संयम द्वारा मोक्ष परमात्मभाव को प्राप्त करने के लिए आहारादि का आलम्बन लेता है । दुर्बल मानव शिशु के लिए माता-पिता का आलम्बन
मानव- शिशु जब तक घुटनों से चलता है, स्वयं खड़ा नहीं हो सकता, दुर्बल और अबोध होता है, तब तक वह माता-पिता का आलम्बन लेता है | उन्हीं के सहारे से वह खाना-पीना, चलना, बोलना, खेलना-कूदना, उठना-बैठना आदि क्रियाएँ करता है । उन्हीं के सहारे से वह अबोध बालक संसार के पदार्थों को जानना - पहचानना सीखता है। कई बातों में अनुभवहीन, असमर्थ और अयोग्य होने के कारण वह भूलें भी कर बैठता है, अतः वे बातें भी माँ-बाप के अनुभव के सहारे से बच्चा सीखता है ।
आत्मशुद्धि के लिए वीतराग परमात्मा का आलम्बन
जगत् पितामह विश्ववत्सल' वीतराग परमात्मा के लिए गृहस्थ और संयमी दोनों प्रकार के साधक भी बालक हैं, जो अभी छद्मस्थ हैं, अपूर्ण हैं, दुर्बल हैं। वे आवश्यक (प्रतिक्रमणादि धर्मक्रिया) के समय वीतराग परमात्मा की साक्षी से अपनी गलतियों, भूलों और दोषों की सरल भाव से स्वच्छ मन से आलोचना, निन्दना, प्रतिक्रमणादि करके आत्मशुद्धि करता है । जब साधक वीतराग परमात्मा का आलम्बन ग्रहण करता है तो उसकी जिज्ञासा, भावना और इच्छा के अनुरूप उसे यथायोग्य अन्तःस्फुरणा और अन्तः प्रेरणा मिलती है, जिससे उसकी अन्तश्चेतना जागृत हो जाती है । अपूर्ण अशक्त साधक व्यवहारदृष्टि से जीवन्मुक्त परमात्मा या सिद्धपरमात्मा का आलम्बन लेकर आत्मा को शुद्ध बनाता है, अथवा शुद्ध आत्मभाव में रमण करके परमात्मभाव की ओर बढ़ता जाता है ।
अतः
सद्धर्माचरणकर्ता के लिए पाँच आलम्बन
स्थानांग सूत्र में श्रुत चारित्ररूप अथवा रत्नत्रयरूप धर्म का आचरण करने वाले गृहस्थ या संयमी साधक के लिए पाँच प्रकार के आलम्बन इस प्रकार बताए गये हैं- ( १ ) षट्कायिक जीव, (२) गण ( धर्मसंघ ),
१ 'जगप्पियामहो जगवच्छलो भयवं ।'
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- नन्दीसूत्र मंगलाचरण गाथा
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