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३१४ | अप्पा सो परमप्पा |
लिए नाक का, चखने के लिए जीभ का, चबाने के लिए दांतों का, चलने के लिए पैरों का तथा किसी वस्तु को उठाने के लिए हाथों का सहारा अल्पज्ञ व्यक्ति को लेना ही पड़ता है। आँखें सबको देखती हैं, मगर स्वयं को देखने के लिए दर्पण का सहारा लेना पड़ता है। इसी प्रकार गुणी मनुष्य भी अपने आपको समझने के लिए दूसरों का सहारा लेते हैं । लौकिक व्यवहार की तरह लोकोत्तर व्यवहार में भी आलम्बन अनिवार्य
इसी प्रकार नदी का तट नजर आने पर भी उसे पार करके तट पर पहुँचने के लिए तैरने की कला में अनभिज्ञ को नौका का आलम्बन लेना पड़ता है । एक तिमंजला मकान है । उसकी सर्वोपरि मंजिल तक पहुँचने के लिए सीढियों की आवश्यकता को सभी स्वीकार करते हैं। कुंए में झाँकने पर पानी नजर आता है। किन्तु उस पानी को प्राप्त करने और उससे प्यास मिटाने के लिए सर्वप्रथम रस्सी और बाल्टी की आवश्यकता रहती है। फिर पानी को निकालने और पीने के लिए व्यक्ति के अपने पुरुषार्थ को। आवश्यकनियुक्ति में भी बताया है कि अच्छा से अच्छा जलयान भी हवा के सहारे के बिना महासागर को पार नहीं कर सकता, इसी प्रकार शास्त्र ज्ञान में निपुण जीव (साधक) रूपी जलयान तप-संयम रूप पवन के बिना संसार-सागर को पार नहीं कर सकता। छद्मस्थ और अल्पशक्तिमान साधक के लिए निशीथभाष्य में आहार का आलम्बन लेने का कारण बताते हुए कहा गया है
मोक्ख-पसाहण हेतू णाणादि, तप्प साहणो देहो ।
देहट्ठा आहारो, तेण तु कालो अणुण्णातो ॥
अर्थात्-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप आदि मोक्ष-साधना के लिए कारण (आलम्बन) है और ज्ञानादि का साधन देह है, तथा देह का साधन आहार है । अतः साधक को समयानुकूल आहार ग्रहण करने की आज्ञा दी गई है।
-एक संस्कृति कवि
१ गुणिनामपि निजरूप प्रतिपत्तिः परतं एव सम्भवति ।
स्वमहिमदर्शनमक्ष्णोर्मु कुरतले जायते यस्मात् ॥ २ वारण विणा पोओ, न चएइ महण्णवं तरिउ ।
निउणो वि जीवपोओ, तब-संजम-मारुअ-विहीणो ।
---आव. नि. ६५-६६
३ निशीथभाष्य ४१५६ तथा बृहत्कल्पभाष्य ५२८१
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