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आलम्बन : परमात्म प्राप्ति में साधक या बाधक ? | ३११
यथायोग्य आलम्बन मिलते जाते हैं। उसे न तो किसी बाह्य आलम्बन लेने की इच्छा जागती है, और न ही वह अनावश्यक आलम्बनों को अपनाकर अपने लिए उपाधि बढ़ाता है। परन्तु जो व्यक्ति अभी अपूर्ण है, आत्मार्थी है, निम्नतम या निम्नतर भूमिका पर है, जो अभी वीतरागता की भूमिका से काफी दूर है, जिसका ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप अभी ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, इन चारों घाति कर्मों से आवृत है, जिसकी आत्मा अभी सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यकतप में, अथवा परमात्मा के अनन्तज्ञान, दर्शन, आनन्द और आत्मिक शक्ति से बहुत पिछड़ी हुई है, छद्मस्थ है, दुर्बल है, आत्मघातक कर्मों से मलिन है, जिसकी आत्मा पर पूर्वजन्मकत कर्मों की गाढ़ी चादर लिपटी हुई है, उसे अन्तिम लक्ष्य-मोक्ष या परमात्मभावरूपी तट पर पहुँचने के लिए किसी न किसी तदनुरूप आलम्बन-ग्रहण करने की आवश्यकता रहती है । निशीथ सूत्र भाष्य में इसी तथ्य का समर्थन करते हुए कहा गया है--
ससार-गड्ड-पडितो, णाणादवलंबित समारुहति ।
मोक्खतडं जध पुरिसो, वल्लि-विताणेण विसमाओ ।।
जिस प्रकार विषम गर्त में पड़ा हुआ व्यक्ति लता आदि को पकड़ कर ऊपर आ जाता है, उसी प्रकार संसाररूपी गर्त में पड़ा हुआ व्यक्ति ज्ञानादि का आलम्बन लेकर मोक्ष तट पर आ जाता है।
अन्तिम मंजिल तक द्रुतगति से पहुँचने के लिए आलम्बन जरूरी
एक आत्मार्थी साधक है। उसको अपने अन्तिम लक्ष्य-मोक्ष या परमात्मभाव तक पहुँचने का सम्यकज्ञान-भान है। किन्तु वह अभी जिस भूमिका पर खड़ा है, वहाँ से अन्तिम मंजिल बहुत दूर है। उसकी गति, मति, शक्ति, क्षमता, योग्यता तथा शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक सम्पदा अभी बहुत ही कम है । वह चाहता तो है-आध्यात्मिकता के सर्वोच्च शिखर पर-अन्तिम छोर पर शीघ्रातिशीघ्र पहुँचना, उसके तन-मन-मस्तिष्क में अन्तिम लक्ष्य तक द्र तगति से पहुँचने की तमन्ना है, परन्तु अभी वह जहाँ खड़ा है, वहाँ से अन्तिम मंजिल काफी दूर है। वह सोचता है कि भविष्य में, मनुष्य जीवन तथा ऐसे धर्म, संघ,
१ निशीथ भाष्य ४६५ ।
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