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२७६ / अप्पा सो परमप्पा
सुमति-चरणकज आतम-अर्पणा, दर्पण जेम अविकार, सुज्ञानी । मतितर्पण बहुसम्मत जाणीए, परिसर्पण सुविचार, सुज्ञानी ।।
भावार्थ यह है कि हे सुज्ञानी ! परमात्मा (सुमतिनाथ प्रभु) के दर्पण की तरह निर्विकारी चरणकमलों में आत्म-समर्पण करो। इस प्रकार के बहुजन सम्मत आत्म-समर्पण से बुद्धि को अत्यन्त तुष्टि (सन्तुष्टि) होगी
और सद्विचारों का संचार होगा। फिर आत्मा शुद्ध होकर परमात्मभावों में आगे से आगे बढ़ती (परिसर्पण करती) जाएगी। अपने अहंत्व-ममत्व के विसर्जन से आत्म-समर्पण का चमत्कार
तात्पर्य यह है कि जब साधक 'अप्पाणं वोसिरामि' करके अपने माने हए स्वकीयों को विसजित, विस्मत या अस्वीकृत कर देता है, तभी वह वीतराग पर मात्म भाव में मग्न होता है, और परमात्मा को पा लेता है, जो आत्मबाह्य परभावों-विभावों को स्वीय मानकर, अपने अहंत्व. ममत्व की गठरी सिर पर लादे फिरता है, वह इन सबको तो खो ही देता है, परमात्मा को भी पाने से वंचित रहता है। इसलिए पूर्णतः आत्मसमर्पण अहंकार विसर्जन करने, अहंशुन्य बन जाने पर होता है। ऐसी आत्मसमर्पण की स्थिति में अपना कुछ भी नहीं होता, न ही उस व्यक्ति को अपने शरीर और मन की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं, लालसाओं और वासनाओं की पूर्ति करने की चिन्ता होती है । उसे अपनी शरीररक्षा की, भूख-प्यास की, सर्दी-गर्मी की अथवा अन्य भयों से सुरक्षा की बिल्कूल परवाह नहीं रहती । भगवान् महावीर की लगातार ५ महीने २५ दिन तक निराहार उपवास तपस्या के दौरान उनका शरीर, स्वास्थ्य, मनोबल या प्राणबल आदि नहीं गिरा, इसके पीछे आत्म-समर्पण का ही चमत्कार था। उन्होंने सिद्ध परमात्मा के चरणों में तन, मन, वचन आदि पर से अहंता ममता, अस्मिता आदि का सर्वथा विसर्जन तथा आत्मा का उनके प्रति सर्वतोभावेन समर्पण कर दिया था। यही कारण है कि लम्बे समय तक निराहार रहने पर भी उनके मन में भूख-प्यास का विचार भी न आया। उनके तन-मन स्वस्थ एवं प्रसन्न रहे। शरीर भी दुर्बल न होकर हृष्टपुष्ट यहा। __अपने आपको विराट्तर परमात्मशक्ति के समक्ष सर्वतोभावेन
१ आनन्दघन चौबीसी की सुमतिनाथ तीर्थकर स्तवन गा. १
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