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२६२ | अप्पा सो परमप्पा
निजी जमीन-जायदाद, धन-सम्पत्ति, बंगले, कार और मठ (आश्रम) आदि की आसक्ति और ममता में डूबे हुए हैं । जो स्वयं भक्तों से लाखों रुपए भेंट लेते हैं, अपने मिशन का प्रचार-प्रसार करते की उधेड़बुन में ही लगे रहते हैं । जो निद्रा को जीत नहीं सकते। इष्ट-वियोग और अनिष्ट-संयोग से जो तिलमिला उठते हैं, शोक-संतप्त हो जाते हैं। अपनी प्रतिष्ठा पर आँच आते ही या लोकनिन्दा होते ही धनलोलुप नेताओं एवं अधिकारियों को मनमाना प्रलोभन देकर उनका मुंह बन्द कर देते हैं। ये और ऐसे ही तथाकथित लोगों की बौद्धिक प्रतिभा से आकर्षित होकर उन्हें भगवान, प्रभु, आप्त या शरण्य मानकर उनकी शरण ग्रहण करते हैं । परन्तु जनदर्शन उन्हें ही आप्त सर्वज्ञ एवं परमात्मा मानता है, जो या तो सर्वकर्ममुक्त सिद्ध-बुद्ध-विदेह-मुक्त हों, या वे घातीकर्मो से मुक्त, अठारह दोषों से रहित हों, ज्ञान-दर्शन चारित्र, आनन्द और आत्मशक्ति से परिपूर्ण हों। इसके लिए आचार्य अमित गति कहते हैं
येनक्षता मन्मथ-मान-मूर्छा-विषादनिद्रा-भय-शोक-चिन्ता । क्षयोऽनलेनेव तरुप्रञ्चरतं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥1
जिन्होंने काम, मान, मा. विषाद, निद्रा, भय, शोक और चिन्ता को उसी प्रकार भस्म कर डाला है जिस प्रकार अग्नि तरुसमूह को भस्म कर डालती है, मैं उन आप्त वीतराग परमात्मा की शरण स्वीकार करता है। वैभव, आडम्बर, चमत्कारों एवं केवल अतिशयों के आधार पर किसी को सर्वज्ञ, वीतराग एवं आप्त मानने से आप्तमीमांसा के रचयिता आचार्य समन्तभद्र ने सर्वथा इन्कार कर दिया है। उन्होंने उन्हीं को वीतराग आप्त माना है, जो क्षधा, पिपासा, जरा, रोग, भय, जन्म-मरण, अहंकार, राग, द्वोष, मोह, चिन्ता, रति, विषाद, खेद, निद्रा, आश्चर्य आदि १८ दोषों से रहित हों । वही सर्वज्ञ वीतरागदेव, जीवन्मुक्त परमात्मा कहलाता है। जीवन्मुक्त परमात्मा का लक्षण भी नियमसार' में स्पष्ट बताया गया है
१ सामायिक पाठ श्लो. २ २ देवागमनभोयान, चामरादि-विभूतयः।
मायाविष्वपि दृश्यन्ते, नातत्वमसि नो महान् ॥ ३ क्ष त्पिपासा-जरातंक-जन्मान्तक-भय-स्मयाः ।
न रागद्वेष-मोहाश्च यस्याप्त: स कथ्यते ॥
-आप्तमीर्मासा
--रत्नक रण्ड कश्रावकाचार ६ ।
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