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परमात्म-शरण से परमात्मभाव-वरण | २६६
मिलते हैं । 'सरणं गच्छामि' और 'सरणं पवज्जामि'2 इन दोनों वाक्यों मैं ऊपर-ऊपर से देखने पर कोई अन्तर नहीं मालूम होता, किंतु गहराई से सोचने पर दोनों में स्पष्ट अन्तर प्रतीत होता है। 'गच्छामि' में शरण में जाने का प्रारम्भ है। शायद शरण में जाने की यह यात्रा पूरी न भी हो, किसी भ्रम, संशय या बहकावे में पड़कर व्यक्ति वापस भी लौट सकता है। अथवा शरण में जाता हूँ, कहने वाले व्यक्ति को शरण्य तक पहुँवते-पहुँचते कई वर्ष या कई जन्म भी लग जाएँ, क्योंकि यह तो साधक के तीव्र या मंद उत्साह की मनःस्थिति या गति-मति पर निर्भर है । किन्तु 'सरणं पवज्जामि' (शरण स्वीकार करता है) यह प्रतिज्ञाबद्ध साधक का दृढ निश्चय सूचक वचन है। इसमें बहुत ही सोच-विचार के पश्चात् निर्णय करके उठाया हआ कदम, अन्तिम निश्चय सचित होता है। इस वाक्य में वापस लौटने का कोई आभास नहीं होता। साधक ने यह कहकर एक ही झटके में शरण स्वीकार करने का फैसला कर लिया, मानो वह शरण के अन्तिम सिरे तक पहुँच गया।
अध्यात्मसाधना करने वाला जैनसाधक प्रतिदिन इसी प्रकार के सूत्रों का उच्चारण करता है--
"चत्तारि सरणं पवज्जामि-अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्ध सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलि-पण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि ।"3
"मैं चार लोकोत्तमों एवं लोकमंगलों की शरण स्वीकार करता हूँ। संक्षेप में वे चार हैं-अरिहंत, सिद्ध, साधु और सर्वज्ञ प्रज्ञप्त धर्म।"
'सर्वेपद हस्तिपदे निमग्ना:'-हाथी के पैर में सभी के पैर समा जाते हैं, इस न्याय के अनुसार अरिहन्त और सिद्ध परमात्मा की शरण में साधु और केवलि (सर्वज्ञ) प्रज्ञप्न धर्म की शरण का समावेश हो जाता है, क्योंकि ये दोनों क्रमशः वीतराग सर्वज्ञ अरिहन्त परमात्मा द्वारा रचित (संघ) और प्ररूपित (धर्म) हैं। वस्तुतः सर्वज्ञ प्ररूपित धर्म और उनके
१ 'बुद्ध सरणं गच्छामि' इत्यादि पाठ २ चत्तारि सरणं पवज्जामि इत्यादि पाठ ३ आवश्यक सूत्र में श्रमण सूत्रान्तर्गत शरणसूत्रपाठ
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