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आत्म-समर्पण से परमात्म- सम्पत्ति को उपलब्धि | २७५
है । इससे वह परमात्मा के असीम आनन्द और अनन्त आत्मशक्ति का रहस्य जान जाता है ।
आत्मसमर्पण से बुद्धि को तृप्ति
परमात्मा के समक्ष आत्मसमर्पण कर देने से सबसे बड़ा लाभ तो यह होता है कि समर्पणकर्ता निश्चित हो जाता है । किसी भी शुभकार्य के करने से हानि-लाभ होने पर मन के पलड़े पर मानसिक चिन्ताओं एवं द्वन्द्वों का उतार-चढ़ाव नहीं होता । उसका मानसिक सन्तुलन समत्व बना रहता है । कार्य बिगड़ जाने पर मनःकल्पित या अकलित निमित्तों को कोसने या भला-बुरा कहने को प्रवृत्ति से छूट जाता है । तथा कार्य भलीभाँति सिद्ध होने पर भी अपने या अपनों को निमित्त मानकर समर्पणकर्ता अहंकार से फूलता नहीं, प्रतिष्ठाप्राप्ति और श्रेय लूटने की धुन में वह विविध मदों से ग्रस्त नहीं होता, न हो अपने आध्यात्मिक विकास एवं सफलता का अधिक मूल्यांकन करके भविष्य में विकास की उज्ज्वल सम्भावनाओं से अपने-आपको वंचित करता है |
परमात्मसमर्पण करने के पश्चात् इष्टसंयोग व अनिष्ट वियोग में, अथवा इष्टवियोग व अनिष्ट संयोग में वह अपने आदान पर, समत्व पर, परमात्मभाव के पुरुषार्थ पर, अथवा परमात्मा को अव्यक्त कृपा एवं सहायता पर स्थिर रहता है इससे इष्टवस्तु एवं व्यक्ति के विभाग तथा अनिष्ट वस्तु एवं व्यक्ति के संयोग होने पर भो उसे आतं द्रध्यान नहीं होता । क्योंकि वह यह सोचता है कि मैंने सब कुछ जब वीतराग परमात्मा के चरणों में समर्पित कर दिया है, तब मुझे किसी बात की चिन्ता, फलाकांक्षा, मनमानी या अहंता-ममता करने, अथवा निमित को श्रेय अश्र ेय देने की क्या जरूरत है ? इस प्रकार समर्पणकर्ता को बुद्धि को यह सब उछलकूद बन्द हो जाती है । वह शान्त, स्थिर, निश्चित और तृप्त ( सन्तुष्ट ) हो जाता है । किसी प्रकार के भय, लोभ, स्वार्थ, आकांक्षा, अस्थिरता या क्षोभ का ज्वार उसे अपने प्रवाह में बहाकर नहीं ले जा सकता । प्रभुचरणों में आत्मसमर्पण करने से पूर्व जो दुर्विचारों, दुश्चिन्ताओं एवं क्रोधादि विकारों के बादल उनड़-घुमड़ कर आ जाते थे, वे सब समर्पण के बाद फट जाते हैं । बुद्धि में सद्विचार और सच्चिन्तन का संचार होता रहता है और तब आत्मा अपने स्वभाव, स्वगुण एवं स्वरूप में रमणता के सुविचारों में आगे बढ़ता रहता है । इसलिए योगीराज आनन्दघनजी परमात्मा की स्तुति करते हुए कहते हैं
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