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आत्म-समर्पण से परमात्म- सम्पत्ति की उपलब्धि | २७३
डकैती, आदि भयंकर गुनाह करने वाले अपराधी को वध, बन्धन आदि की भयंकर सजा देती है । यदि कोई पापकर्मी या अपराधी इस जन्म में सरकार, समाज आदि के दण्ड से बच जाए तो परलोक में उसे नरक, या तिर्यञ्च गति में तो भयंकर सजा भुगतनी पड़ती है, मनुष्यलोक में भी कई व्यक्तियों को अपने पूर्वकृत पापकर्मों का कटुफल भोगना पड़ता है ।
इसके विपरीत यदि व्यक्ति परमात्मा के चरणों में आत्म समर्पण कर देता है, तो उसे अपने मन, वचन, तन, बुद्धि, हृदय, इन्द्रियाँ, प्राण आदि से होने वाली सावध ( पापयुक्त) वृत्ति प्रवृत्तियों का स्वयं स्वेच्छा से निरोध एवं दमन (नियन्त्रण) करना पड़ता है । फलतः हिंसादि आस्रव ( कर्मों के आगमन) रुक जाते हैं । इसके अतिरिक्त परमात्म समर्पित व्यक्ति अपने शुद्ध अन्तःकरण से निश्छल सरल होकर प्रभु की साक्षी से पूर्व कृत पापकर्मों की आलोचना, निन्दना गर्हणा एवं प्रायश्चित लेकर शुद्ध हो जाता है, तब वह परमात्मभाव ( शुद्ध आत्मभाव ) में रमण करता है और एक दिन परमात्मा का कृपाभाजन बन कर उनके अनन्तज्ञानादि की निधि पा जाता है । अतः आत्मसमर्पण के मूल में स्वेच्छा से आत्मदमन करना अनिवार्य है ।
उत्तराध्ययन सूत्र में आत्मसमर्पण के इसी सिद्धान्त को आत्मदमन ( स्व - नियन्त्रण) के रूप में समझाया गया है
अप्पा चैव दमेवो, अप्पा हु खलु दुद्दम । अप्पा दंतो सुही होई, अस्सि लोए परत्थ य ॥ वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य । माऽहं परेहिं दम्मंतो, बंधणेहिं वहेहिं य ॥
इनका भावार्थ यह है कि यद्यपि आत्मा (अपनी मानी हुई दुर्वृत्तिप्रवृत्तियों से व पापों से परिपूर्ण आत्मा) का दमन करना अतीव दुष्कर है, फिर भी (परमात्मा के चरणों समर्पित होने हेतु ) ऐसे आत्मा (अपने पापकारी मन, बुद्धि, इन्द्रिय आदि) का दमन करना अनिवार्य है । क्योंकि इस प्रकार ( आत्मसमर्पणपूर्वक ) आत्मदमन करने वाला इहलोक और परलोक में सुखी होता है । इसलिए स्वेच्छा से आत्मसमर्पणपूर्वक संयम और
१ उत्तराध्ययन अ. १ गा. १५-१६
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