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२७४ | अप्पा सो परमप्पा
तप द्वारा आत्मदमन करना ही श्रेयस्कर है अन्यथा दूसरों के द्वारा वध बन्धन आदि से मुझे बलात् दमन किया जाएगा । स्वेच्छा से आत्मसमर्पणपूर्वक आत्मदमन किये बिना ऐसा ही दुष्परिणाम आ सकता है ।
वस्तुतः जो व्यक्ति स्वेच्छा से आत्मदमन नहीं करता, उसे पूर्वकृत पापकर्मों के फलस्वरूप इहलोक-परलोक में नाना दुःख उठाने पड़ते हैं, ये दुःख तो सामान्य हैं, बार-बार जन्म-मरणादि के भयंकर दुःख भी उसे भोगने पड़ते हैं। आत्म-समर्पण से महान लाभ
एक बीज है, वह अगर धरती माता की गोद में अपने-आपको समपित नहीं करता है और अलग-थलग अपने तुच्छ घेरे में पड़ा रहता है तो पानी उसे गलाने लगता है, ऊपर की मिट्टी उसे सड़ाने लगती है, सूर्य का ताप उसे सुखाने लगता है, हवा उसे उड़ाकर कहीं का कहीं ले जाती है । अर्थात्-वह इधर से उधर थपेड़े खाता फिरता है।
किन्तु वही बीज यदि अपने-आपको मिटाने हेतु धरतीमाता की गोद में समर्पण कर देता है तो उस में से विकास के नन्हें-नन्हें अंकुर फूट पड़ते हैं। हवा उसे दुल राती है, सूर्यकिरणें उसे शक्ति देती हैं। वर्षाजल उसका अभिसिंचन करता है । सारो प्रकृति उसकी सेवा में जुट जाती है। वह बीज नीचे विकसित होता है और अपनो आधारभूमिरूप जड़ें सुदृढ़ कर लेता है। जब ऊपर उठता है तो तेजी से विशाल वृक्ष के रूप में परिणत होता चला जाता है। फिर उस विशाल तरु के आश्रम से अनेकों जीव-जन्तुओं को पोषण मिलता है, अनेकों पक्षियों को बसेरा मिलता है। सैकड़ों मानवों
और पशुओं को वह आश्रय देता है। सैंकड़ों प्राणियों को अपने फल-फूल, छाल, डाली, पत्ते आदि जीवनोपयोगी उपहार देता रहता है । वही एक बीज समर्पित होकर करोड़ों बीजों का जनक होकर उन्हें समर्पण परम्परा की अव्यक्त प्रेरणा दे जाता है।
इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने माने हए पदार्थों से अपना आसक्तिसम्बन्ध रखकर परमात्मा से विमुख, अलग-थलग रहता है, वह सभी प्रकार से दुःखित, पीड़ित एवं प्रताड़ित होता रहता है। किन्तु जब वही व्यक्ति अपने-आपको (घर में अपनी आत्मबुद्धि को) मिटाकर परमात्मा में अपने को समर्पित कर देता है तो उसे ज्ञान-दर्शन का विशुद्ध प्रकाश मिलता है, जिससे वह प्रत्येक पदार्थ के वस्तुस्वरूप का विचार और विवेक कर सकता
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