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२३४ | अप्पा सो परमप्पा एक अन्य आचार्य ने भी बताया है
संजोगमूला जीवेण पत्ता दुक्ख-परम्परा ।। जोव को जो दुःख-परम्परा प्राप्त होती है, उसका मूल कारण संयोग है।
संयोग जब इतनी दुःख-परम्पराओं का मूल कारण है, तब पद-पद पर संयोग से जुड़ी हुई आत्मा अनन्तआत्मसुखनिधान सिद्ध-बुद्ध-मुक्त या जीवन्मुक्त परमात्मा कैसे बन सकती है ? ।
समत्वयोगी आचार्यश्री हरिभद्रसूरि ने 'योगबिन्दु' ग्रन्थ में इसी तथ्य का समर्थन इस प्रकार किया है
आत्मा तदन्य-संयोगात्, संसारी तद्वियोगतः।।
स एव मुक्त एतौ च, तत् स्वाभाव्यात् तयोस्तथा ॥2 आत्मा अपने से भिन्न (अन्य) पदार्थों के साथ संयोग से संसारी बन जाती है, अतः संसारयोग्यता नामक स्वभाव का प्रकट होना यूजनकरण है और आत्मा अपने से बाह्य पदार्थों से पृथक् (वियोग) होने से मुक्त हो जाता है। अतः मुक्तियोग्य स्वभाव का प्रकट होना गुणकरण है ।
निष्कर्ष यह है कि आत्मा का अन्य (आत्मभिन्न) पदार्थों के साथ जब तक संयोग सर्वथा दूर नहीं हो जाता, तब तक वह मुक्ति-प्राप्ति या सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्म-प्राप्ति से दूर रहता है । आत्मा से बाह्य पदार्थों का संयोग ही आत्मा को परमात्मा से दूर रखता है । संयोग कौन-सा और कैसा वजित है ?
अगर संयोग का अर्थ किसी पदार्थ का स्पर्श या सम्पर्क करना अथवा किसी पदार्थ से जुड़ना, इतना ही किया जाए तो बहुत ही दोषापत्तियाँ आएँगी। ऐसा संयोग तो वीतराग सदेहधारी जीवन्मुक्त परमात्मा भी नहीं छोड़ सकते । वे भी जब एक स्थान से दूसरे स्थान को विहार करते हैं, तब क्षेत्र का स्पर्श होता है, कई मनुष्यों, जीवों और पदार्थों से सम्पर्क और संयोग-सम्बन्ध होता है। अपने द्वारा स्थापित संघ के साधु-साध्वियों एवं श्रावक-श्राविकाओं से भी वास्ता पड़ता है।
१ संस्तारक सूत्र २ योगबिन्दु
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