________________
आत्मा और परमात्मा के बीच की दूरी कैसे मिटे ? | २३३
तिलांजलि दे सकता है ? कैसे वह इन संयोगों से दूर रह सकता है ? जब तक वह इन और ऐसे ही विविध संयोगों से जुड़ा रहेगा, तब तक वह मुक्त - परमात्मा कैसे हो सकेगा ? ऐसी स्थिति में तो तीर्थंकर या आत्मार्थी मुनि भी शरीर के रहते हुए आहारादि के संयोग से कैसे बचा रह सकेगा और निर्ग्रन्थ श्रमणों के लिए 'संजोगा विध्यमुक्कस्स अणगारस्स भिक्खुणो' कहा है, अर्थात् - 'भिक्षाजीवी निर्ग्रन्थ अनगार भिक्षु संयोग से विशेष प्रकार से मुक्त हो... ऐसा जो श्रमण भगवान् महावीर ने कहा है, उक्त सिद्धान्त को जीवन में कैसे त्रियान्वित कर सकेगा ?
इसके अतिरिक्त आचार्यश्री अमितगति ने सामायिक पाठ में आत्मा को मोक्ष - परमात्मभाव ( निर्वाण ) प्राप्त करने में संयोग को बाधक और नानादुःखकारक बताते हुए कहा है
'संयोगतो दुःखमनेकभेदं यतोऽश्नुते जन्मवने शरीरी । ततस्त्रिधाऽसौ परिवर्जनीयो, यियासुना निर्वृतिमात्मनीनाम् ||2
संसाररूपी अरण्य में (बाह्यपदार्थों के साथ) संयोग के कारण प्राणी अनेक प्रकार के दुःख भोगता रहता है । आचारांग सूत्र में संयोग को पुनः पुनः हिंसाजनक शस्त्र और उससे फलस्वरूप दुर्गति गमन बताते हुए कहा है
अहोय राओ व परितप्यमाणे कालाकालसमुट्ठाइ संजोगट्ठी अट्ठालोभी आलूंपे सहसाकारे विनिविट्ठचित्ते एत्थ सत्ये पुणो पुणो ।
रात-दिन अपनी चिन्ता से सन्तप्त संयोगार्थी - नाना सुख संयोग की कामना करने वाला अर्थ लोभी मानव काल - अकाल की परवाह न कर व्यर्थ दौड़-धूप करता है तथा साहसपूर्वक सहसा किसी को लूट लेता है, प्राणियों पर बार-बार शस्त्र चलाता है ।
अतः आत्मार्थी साधक परमात्मभाव या परम आत्मशान्ति ( निर्वृति) प्राप्त करना चाहता है, उसे मन-वचन-काया, इन तीनों ही प्रकार से संयोग का त्याग कर देना चाहिए ।
१ उत्तराध्ययन सूत्र अ. १, गा. १
२ अमितगति सूरिरचित सामायिक पाठ, श्लोक २८
३ आचारांग १/२/२/२१७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org