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आत्मा और परमात्मा के बोच को दूरी केसे मिटे ? | २४५
साथ पास्ता पड़े, तब मन में कतई राग-द्वेष, मोह, कषायादि विभावों को न आने दो, वचन का प्रयोग भी पूरो सावधानी से करो और काया से भी किसी प्रकार की आसक्तिननित चेष्टा न करो । पूर्वोक्त संयोग को मन में कतई स्थान न दो, उसे दूर से हो खदेड़ दो, आने लगे तब उपेक्षाभाव रखो, उसे फौरन अस्वीकृत कर दो। जैसे-रेडियो स्टेशन में ब्राडकास्ट की हुई ध्वनि तरंगें आकाश में यत्र-तत्र सर्वत्र घूम तो रहती हैं, परंतु रेडियो यंत्र का जो स्टेशन खुला हो, वहीं वे प्रगट हाता हैं। ठीक इसी प्रकार पंचेन्द्रिय विषय, विविध सूखापभोग के साधन, विभिन्न मत-मतान्तर, विचार अथवा विविध प्राणियों से सारा विश्व भरा पड़ा है, किन्तु साधक पर उसी का अवतरण होता है, जिसे राग भाव से अपनाया जाता है। अगर उसे उपेक्षित या अस्वोकृत कर दिया जाए, अयवा शास्त्रीय भाषा में मन से उस वस्तु की अभिलाषा न को जाए तो वह वस्तु वापस लौट जाएगी, उस वस्तु के संयोग से साधक को आत्मा बच जाएगा। जैसे कि दशवैकालिक सूत्र में संयोग (काय) त्यागी का स्वरूप बताया गया है
जे य कंते पिए भोए, लद्ध विपिदी कूम्वाइ । साहीग चयइ भोए, से हु चाईति बुच्चइ ॥
जो साधक कमनीय प्रिय मनोज्ञ पदार्थों के भाग का अवसर उपस्थित (प्राप्त) होने पर भो उनको ओर पीठ = उपेक्षाभाव कर लेता है, सूखसामग्री स्वाधीन हो पर भो उसके उपभोग का स्वेच्छा से त्याग कर देता है, वही वास्तव में (संयोग) त्यागी कहलाता है ।
यदि आत्मार्थी साधक का मन या अन्तःकरण ढिलमिल होगा, तो चारों ओर से उस पर आत्मबाह्य पदार्थों (परभावों) का आक्रमण होगा। जहाँ भी मानसिक, वाचिक या कायिक दुर्बलता होगी, वहीं अवांछनीय तत्त्व चढ़ बैठेंगे । पानी निचाई को ओर ही ढलता है, ऊँचाई पर वह बिना यंत्र के सहारे के नहीं चढ़ पाता। इसी प्रकार मन और इन्द्रियों को विषयों के प्रति रागद्वेष के निम्न प्रवाह में बहने न देकर, यदि मन और इन्द्रियों से ऊपर उठकर आत्मिक या आत्मलो दृष्टि से चिन्तन, मनन, वचन या आचरण किया जाएगा तो अवांछनोय तत्त्वों का प्रवेश या उनके प्रति राग द्वषादि के कारण भाव कर्म-द्रव्यकर्म का संयोग (युजनकरण) नहीं हो
१ मणसा वि न पत्थए २ दशवैकालिक सूत्र अ. २ गा. ३
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