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परमात्मा को कहाँ और कसे देखें ? | २२३
और प्रसिद्धि के लुभावने मार्ग को ही परमात्मा का मार्ग समझकर चल पड़ते हैं और वीतराग परमात्मा की प्राप्ति के बदले राग-द्वेष, मोह, स्वार्थ और प्रतिष्ठा को भूलभुलैया में पड़कर गुमराह हो जाते हैं। जब असलियत सामने आती है तब पश्चात्ताप और आर्तध्यान के सिवाय कोई चारा नहीं रहता। इस भूल का मूल कारण बताते हुए योगीश्वर आनन्दघनजी कहते हैं
चरमनयणे करी मारग जोवतां रे, भूल्यो सयल संसार ।
जेणे नयणे करी मारग जोइए रे, नयण ते दिव्य विचार ।।1 इसका भावार्थ यह है कि चमड़े की इन स्थूल नेत्रों से वीतराग परमात्मा का मार्ग देखने वाले लोग प्रायः भ्रान्ति में पड़ जाते हैं। वे जैसे वीतराग परमात्मा की देह को वीतराग परमात्मा समझकर गौतम स्वामी जैसे उच्चकोटि के साधक प्रशस्तरागवश भ्रान्ति में पड़े थे, उसी प्रकार वे भी वीतराग परमात्मा की छवि या प्रतिकृति को ही वीतराग परमात्मा समझकर उस छवि या प्रतिकृति के आगे नाचने, गाने, बजाने, रागरंग करने, तालियाँ पीटने; उनकी छवि या प्रतिकृति के आगे पूष्प, फल, मेवामिठाइयाँ आदि का चढ़ावा-चढ़ाने तथा उनकी मूर्ति के समक्ष भोग धराने, रुपयों-गहनों आदि की भेंट चढ़ाने या उनकी प्रतिकृति को सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण पहनाकर उसके आगे स्तवन, स्तोत्र, भक्तिगीत या प्रार्थना बोलने या गाने मात्र को परमात्मा की प्राप्ति का या उनका साक्षात्कार करने का मार्ग समझ लेते हैं। अथवा इन्द्र-इन्द्राणी या देव-देवी का स्वरूप बनाकर बाह्य भक्ति करने को या सिर्फ जयकार का नारा लगाकर अथवा रात-रात-भर जागकर उनका सिर्फ कीर्तन करके या कोरे गुणगान करके ही समझ लेते हैं कि परमात्मा की प्राप्ति का यही मार्ग है । स्थूलदृष्टिवाला जनसमूह विविध प्रकार की इस बाह्यभक्ति को ही परमात्म-प्राप्ति का मार्ग समझकर भूलभुलैया में पड़ा रहता है ।
कई स्थूलदृष्टि वाले लोग विविध धर्म-सम्प्रदाय, मत. पंथ या दर्शन के विद्वान धर्मशास्त्रियों द्वारा बताए हुए स्थूल भक्तिमार्ग या स्थूल क्रियाकाण्डों या बाह्य प्रवृत्तियों को परमात्मा के मार्ग को ही वास्तविक प्रभुपथ समझकर अनुसरण करने लगते हैं।
१ आनन्दघन चौबीसी, अजितजिनस्तवन गा. २
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