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२२६ | अप्पा सो परमप्पा
__ इसलिए प्रसिद्धपुरुष-परम्परानुसरण, सम्प्रदायपरम्परानुसरण एवं पराश्रित बहजन-अनुभवपरम्परानुगमन, ये तीनों ही अन्धानुकरण हैं। इनसे परमात्मा के यथार्थ मार्ग का बोध या निर्णय नहीं हो सकता। प्रेरणा देने वाला अल्पज्ञ साधक भी अपने मत, पन्थ, सम्प्रदाय-परम्परा, गुरुधारणा या अपने पूर्वाग्रहग्रस्त अभिप्राय का एकान्त आग्रही-हठाग्रही होकर जब प्रेरणा लेने वाले को प्रेरणा देता है, तब निष्पक्ष एवं सत्य दृष्टि को प्रायः छोड़ देता है। परमात्मा के यथार्थ मार्ग के विषय में उसकी मतपन्थ-परम्परा भी प्रायः पूर्णतया सत्य नहीं मानी जा सकती। वह अपनी मान्य परम्परा एवं धारणा के वजनी पत्थर प्रायः सत्य के पलड़े में रख देता है, जिससे सत्य के बदले परम्परा, धारणा आदि का पलड़ा भारी हो जाता है।
यद्यपि परमात्मा के मार्ग का निर्णय करने में आगमों या धर्मशास्त्रों का निर्णय भी काफी वजनदार माना जाता है, किन्तु आगमों, शास्त्रों या धर्मग्रन्थों से भी परमात्मा के यथार्थ पथ का निर्णय करना कठिन है । पहले तो धर्मग्रन्थ और शास्त्र सभी धर्म-सम्प्रदायों के अलग-अलग हैं। कदाचित् एक धर्म का तत्वज्ञान या शास्त्र एक हों, फिर भी अगमोक्त बातों का या तत्वज्ञान का अर्थ एवं भावार्थ करने वाले बहधा अपने-अपने मत, पन्थ, गच्छ, सम्प्रदाय की परम्परा एवं धारणा के अनुसार करते हैं । सभी अपनेअपने द्वारा किये हुए अर्थ, यथार्थ न होने पर भी पूर्वाग्रहवश यथार्थ ठहराते हैं। उसे ही परमात्म-प्राप्ति का शुद्ध और यथार्थ मार्ग कहते हैं। श्रद्धालु एवं जिज्ञासू अल्पमति व्यक्ति की बुद्धि चकरा जाती है, परस्पर-विरोधी बातें देख-सुनकर । इसीलिए श्री आनन्दघन जी को कहना पड़ा
"वस्तु विचारे रे जो आगमे करी रे, चरण धरण नहीं ठाय ।"1
आगमों से परमात्मा के वास्तविक मार्ग को खोजना अत्यन्त दुष्कर कार्य है।
आगमों से परमात्मपथ का निर्णय इसलिए भी दुष्कर लगता है कि बहुधा आगमों के द्वारा परमात्मपथ का अन्वेषण करने वाले साधक आगमों में वीतराग परमात्मा द्वारा साधनाकाल में उन पर आए हुए उपसर्गों और परीषहों का, उनकी निर्दोष कठोरचर्या का, उनके बाह्यतप, त्याग एवं
१ आनन्दघन चौबीसी अजितजिनस्तुति गा० १३
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