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परमात्मा कैसा है, कैसा नहीं ? | २०७ जैसे कि भगवद्गीता (अ० ६/३२) में कहा है
मां हि पार्थ ! व्यपाश्रित्य, येऽपि स्युः पापयोनयः । स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ।।
हे अर्जुन ! स्त्री हो, वैश्य हों तथा शूद्र हों अथवा कोई भी पापयोनि वाले हों, मेरी शरण में आकर परमगति को प्राप्त हो जाते हैं ।
यही कारण है कि ऐसी सस्ती भक्ति एवं अल्पश्रमसाध्य शरणागति से बड़े से बड़ा पापी, चोर, डाकू, वेश्या आदि बिना किसी नैतिक, धार्मिक आचरण या अध्यात्म-साधना के सिर्फ राम, कृष्ण आदि के नाम की रट लगाने से तिर जाता है, पापों के फल से बच जाता है, पापमाफी करा सकता है । जहाँ स्तोत्र या स्तुतिपाठ करने से, नाम-स्मरण आदि करने से आजीवन पापकर्मरत अजामिल को नारायणदूत स्वर्ग में ले जाते हों, तोते को राम-नाम रटाती हुई वेश्या तार दी जाती हो, अपने पुत्र नारायण को पूकारने मात्र से नारायण के दूत दौड़कर उसे लेने आते हों, वहाँ नैतिकता आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता का आचरण कोई करेगा ही क्यों ? जीवन में नीति, सद्धर्म और अध्यात्म की भला वहाँ क्या जरूरत है ? फिर तो अवतारवाद को बेखटके पाप करने और उसके फल से बचने के लिए ईश्वर या भगवान् (अवतार) की शरण में चले जाने की ही प्रेरणा मिलेगी।
ऊँचे आदर्शों की बातें केवल सुनने के लिए ऐसी सस्ती भक्ति के कारण लोगों में पुरुषार्थहीनता, कायरता, आलस्य, निर्बलता एवं दिखावा आदि अनिष्ट ही पनपे। जब कभी किसी अवतारी (भगवान्) या ईश्वर के द्वारा आचरित उच्च आदर्श की, आचरण की या उच्च साधना की बात चलती है अथवा उन महापुरुषों की कठोर जीवनचर्या की बात सुनने में आती है तो लोग तपाक से कह उठते हैं- वे तो भगवान थे। उनका क्या कहना ? वे तो असम्भव को सम्भव कर दिखा सकते थे या कर दिखाते हैं। उनकी होड़ हम थोड़े ही कर सकते हैं। हम ठहरे अल्पज्ञ, अल्पशक्ति वाले ! हम क्षमा, दया, दान, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सत्य आदि सद्गुणों को पूर्णरूपेण साधना नहीं कर सकते, वे ही कर सकते हैं। परमात्म-प्राप्ति करना हमारे बस की बात
१ मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादातरिष्यसि ।
अयचेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ क्ष्यसि ।। २ मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ।
-गोता १८/५८ -गीता १८/५६
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