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२०८ | अप्पा सो परमप्पा
नहीं है। इस प्रकार अवतारवाद के संस्कारों में पले लोग समस्त साधनाओं, सद्गुणों को प्रभु की लीला मात्र समझते हैं। उनके लिए ईश्वर की आत्मभावनिष्ठा, या रत्नत्रय-साधना, अथवा सच्चिदानन्दादि सद्गुण केवल सुनने भर के लिए हैं, आचरण के लिए नहीं । अवतारों के चरित्र की छानबीन न करो
___ अवतारवाद की यह मान्यता भी मानव पर बौद्धिक, वाचिक एवं कायिक या वैचारिक प्रतिबन्ध लगा देती है, उसकी जबान एवं मन पर ताला लगा देती है। ईश्वर या अवतार के चरित्र के विषय में कोई शंका-कुशंका, या आलोचना करने या उनकी भूल बताते या भला-बुरा कहने की कोई गुन्जाइश ही नहीं है। अगर कोई आलोचना करता है तो अवतारवादो प्रायः कहा करते हैं-भगवान् या महापुरुष की जीवन-लीला के रहस्यों को तुम अल्पज क्या जानो ? वह जो कुछ भी करता है, अच्छा ही करता है । उन पर श्रद्धा-भक्ति रखो, उनकी निन्दा-आलोचना मत करो। बहुधा कहते हैं-महापुरुषों का जीवन श्रद्धापूर्वक सुनने के लिए है,1 उनका अनुकरण या तदनुसार आचरण करने के लिए नहीं। जो ईश्वर या भगवान् अपने द्वारा आचरित मार्ग पर चलने वाले साधकों को अपने समान भगवत्त्व या ईश्वरत्व प्राप्त करने - या अपने समान बन जाने से इन्कार करता है, जिसका आदर्श जीवन केवल सुनने के लिए है, आचरण करने या उन आदर्शों को अपनाने के लिए नहीं, उक्त अवतारवाद को मानने और अपनाने से कोई भी लाभ व्यक्ति, समाज या समष्टि को नहीं है । श्रमणसंस्कृति का आदर्श : अवतार नहीं, उत्तार
श्रमणसंस्कृति (जैन-बौद्ध संस्कृति) शरीर, जन्म-मरण और कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त-सिद्ध-बुद्ध परमात्मा (ईश्वर) का पुनः संसार में किसी भी रूप में अवतरण (अवतार) नहीं मानती, अपितु मानव का ईश्वररूप में उत्तरण मानती है। वह मानव को आत्मा से मानवरूप में तीर्थंकर, केवलज्ञानी या अरिहन्त (जिन) के रूप में सदेह जीवन्मुक्त परमात्मा अथवा निरंजन निराकार विदेह सिद्ध-बुद्ध परमात्मा बनने के उत्तरण के सिद्धान्त को स्वीकार करती है। श्रमणसंस्कृतिमान्य तीर्थंकर, जिन, केवली या अरिहन्त, अथवा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त दोनों कोटि के परमात्मा
१ श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः ।
सोऽपिमुक्तः शुभाल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ॥
-भगवद्गीता १८/७१
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