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१३६ / अप्पा सो परमप्पा सम्पर्क स्थापित हो गया। किन्तु अभी तक वे बाह्य जगत् को अपनी आँखों से नहीं देख पाते थे।
__क्रमशः विकास और आगे बढ़ा। वे चार इन्द्रियों वाले जीवों में उत्पन्न हुए। चेतना के विकास की चौथी रश्मि प्रस्फुटित हुई। उसके माध्यम से संसार को तथा संसार के सजीव-निर्जीव पदार्थों के रंग-रूप देखने की शक्ति प्राप्त हो गई। चार इन्द्रियों वाले जीवों की आत्माएँ संसार के विभिन्न पदार्थों के आकार, प्रकार और उनकी मोहकता निहार कर चकित हो गईं। परन्तु अभी तक उन्हें चिन्तनशक्ति उपलब्ध न हो सकी।
चार इन्द्रियों वाले जीवों की आत्माएं विकास क्रम से आगे बढकर पाँच इन्द्रियों वाले पशु-पक्षी आदि जीवों में आईं। यहाँ आने पर चेतना की पाँचवीं किरण फुटी । श्रोत्रन्द्रिय (कान) की उपलब्धि हई । अब वे सूनने लगे । सुनने से शब्दों का आदान-प्रदान प्रारम्भ हो गया । बाह्य जगत् के साथ, अन्य जीवों के साथ पूर्ण सम्पर्क स्थापित हो गया, व्यवहार भी खुल गया। चेतना के विकास के पाँच वातायन तो खले । उन्हें अपने अस्तित्व के साथ-साथ जगत के अन्य जीवों के अस्तित्व का बोध भी हआ। लेकिन वैचारिक स्तर का विकास न हो सका, क्योंकि द्रव्य मन (संज्ञित्व) की उपलब्धि अभी तक नहीं हो पाई। विकसित चेतना वाली आत्माएँ : किन्तु परमात्मा होने के अयोग्य
चैतन्य-सूर्य की असंख्य-असंख्य किरणें हैं। उनमें से असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव को पाँच किरणे ही प्राप्त होती हैं । यद्यपि चतुरिन्द्रिय (स्पर्शन, रसना, घ्राण और नेत्र इन चार इन्द्रियों वाले) जीवों को परमात्मदर्शन के लिए आँख तो मिली, परन्तु अन्तर् की आँख न मिलने के कारण उस योनि में परमात्मा का साक्षात्कार न हो सका । नेत्र मिलने के बावजूद भी पानी पर लकीर खींचने की तरह चार इन्द्रियों वाले जीवों की आत्माओं को परमात्मपद का किंचित् भी भान न हो सका। उनका जन्म व्यर्थ गया। असंज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीवों को स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्ष और श्रोत्र, ये पाँचों इन्द्रियाँ मिलने पर भी द्रव्य मन न मिलने के कारण मुक्त वीतराग परमात्मा के रूप को जान-समझ न सके । मूल में शुद्ध चैतन्य परमात्मा के समान अनन्त चैतन्यकिरणों का केन्द्र होते हुए भी उस पर प्रगाढ़ आवरण के कारण वह परमात्मपद से काफी दूर रहा ।
इसके पश्चात् कतिपय आत्माएँ विविध योनियों में भटकती-भटकती
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