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परमात्मा बनने को योग्यता किसमें ? | १४३
अन्तरात्मा का भावार्थ है--जिसकी आत्मा अन्तर्मुखी हो। जिसने सजीवनिर्जीव पर-पदार्थों की तरफ पीठ कर ली, जिसकी समग्र दृष्टि, गति, मति
और चेतना आत्मा की ओर है । उसका ध्यान सिर्फ अपनी आत्मा में है, पर-पदार्थों के प्रति वह आसक्ति, ममत्व-बुद्धि और ध्यान नहीं रखता। योगीश्वर आनन्दधन जी के शब्दों में अन्तरात्मा का स्वरूप इस प्रकार
"कायादिकनो हो साखीधर रह्यो, अन्तर आतमरूय, सुज्ञानी।"
अन्तरात्मा वह है, जो शरीर और शरीर से सम्बन्धित पर-पदार्थों एवं प्रवत्तियों का ज्ञाता-द्रष्टा तथा साक्षीरूप बनकर रहता है । तात्पर्य यह है कि अन्तरात्मा शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव (परिवार, परिजन, मित्रादि स्वजन) तथा निर्जीव (धन, मकान, दुकान, जमीन-जायदाद तथा विषय सुख-सामग्री आदि) में 'मैं' और 'मेरेपन' की बद्धि नहीं रखता. वह इन्हें आत्मा से भिन्न, विभाव या परभाव मानकर इनका सिर्फ ज्ञाताद्रष्टा बना रहता है, इनसे आत्मा को पृथक् समझता है। वह शरीरादि बाह्य भावों में आत्मबुद्धि छोड़कर शुद्ध ज्ञानमय आत्म-स्वरूप का निश्चय करता है । विषय-कषायादि विभावों में भी आत्मबुद्धि नहीं रखता, इन्हें आत्मा से पृथक् मानता है । शरीर से जो भी प्रवृत्तियाँ या क्रियाएँ वह करता है, वह आत्महित के लिए करता है, तथापि अपनी आत्मा को शारीरिक क्रियाओं या मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों का साक्षी मानता है। वह इन्हें परभाव मानकर इनके ममत्व में नहीं पड़ता। इस कारण अहंकारवश स्वयं को उनका कर्ता नहीं मानता। पूर्वोपार्जित कर्मों को भोगता हुआ भी अपने-आपको तटस्थ साक्षी मानता है। जैसे रस्सी में साँप का भ्रम दूर हो जाने पर व्यक्ति भयमुक्त हो जाता है, वैसे ही अन्तरात्मा परभावों से सम्बन्धित समस्त भयों से मुक्त हो जाता है। वह समस्त देहधारियों या प्राणियों के ऊपरी चोलों, ढांचों तथा आकारों, या विभिन्न देशों, वेषों, धर्म-सम्प्रदायों, दर्शनों अथवा जातियों के जीवों के ऊपरी आवरणों को न देखकर उन में विराजमान शुद्ध आत्मा को अपनी विवेकमयी प्रज्ञा से देखता है। वह सभी प्राणियों को आत्मवत्दृष्टि से ही देखता है । अपने में विराजमान शुद्ध आत्मा को ही वह परमात्मा मानकर उसी पर आए हुए आवरणों को दूर करने का पुरुषार्थ करता है। बहिरात्मा और अन्तरात्मा में अन्तर 'नियमसार' में स्पष्ट बताया गया है, उसका भावार्थ यह है-जो पुण्यकर्म की कांक्षा से स्वाध्याय, प्रत्या
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