________________
आत्मार्थी की दृष्टि : परमात्मभाव की सृष्टि | १८६
आत्मार्थी द्वारा पंचास्तिकाय का ज्ञान तथा निश्चय करने के बाद प्राप्तव्य क्या है ? इसका समाधान यह है कि उसके लिए अत्यन्त विशुद्ध चैतन्यस्वभावी ज्ञानरूपी आत्मा (जीवास्तिकाय) ही प्राप्तव्य है। पंचास्तिकाय में से विशद्ध आत्म द्रव्य को कैसे प्राप्त करता है ? प्रथम तो वह चिन्तन करता है कि इस लोक में पंचास्तिकाय के समूह रूप अनन्त द्रव्य हैं। उनमें से अनन्त अचेतन द्रव्य तो मेरे (आत्मद्रव्य) से भिन्न = विजातीय हैं। वे अचेतन द्रव्य मैं नहीं हैं तथा चैतन्य स्वभाव वाले अनन्त द्रव्य भी भिन्न-भिन्न हैं। वे सभी जीवास्तिकाय के अन्तर्गत आ जाते हैं। परन्तु वे सभी जीवास्तिकाय के अन्तर्गत होते हुए भी दूसरे अनन्त जीवों से पृथक मैं एक स्वतन्त्र चैतन्यस्वभावी जीव (आत्मा) हैं। इस प्रकार स्व सम्मुख होकर अनन्तकाल में न किये हुए, अपूर्व रूप से आत्मा के विषय में निर्णय निश्चय करता है । निर्णय की ऐसी ठोस भूमिका के बिना आत्मधर्म काआत्मस्पर्शी स्वधर्म के आचरण का प्रारम्भ नहीं होता, आत्मा परमात्मभाव को प्राप्त करने की ओर अग्रसर नहीं होता। इस प्रकार के निर्णय में आत्मार्थी ज्ञान, रुचि और वीर्य के अन्तर्मुखी उत्साह बल पर अध्यात्म विकास में उतरोत्तर आगे बढ़ता जाता है। इस ठोस निर्णय से वह देह का नाम तो कदाचित भूल सकता है, परन्तु आत्मा को = आत्मस्वरूप को नहीं भूल सकता। वह देह-प्रेमी न रहकर आत्मप्रेमी हो जाता है। उसके ज्ञान की निर्मलता में आत्मा का ऐसा फोटो (चित्र) अकित हो गया कि वह उसे कदापि विस्मृत नहीं हो सकता। ऐसा निर्णयकर्ता आत्मार्थी मिथ्यात्वादि या रागद्वषादि विभावों का क्षय करके अल्पकाल में ही सिद्ध-वृद्ध मूक्त वीतरागी परमात्मा हो जाता है, मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
षट् द्रव्यों के ज्ञान से जीव द्रव्य को पृथकता का निर्णय षट् द्रव्यों में से पांच द्रव्य तो ये पंचास्तिकाय हैं, एक काल द्रव्य अधिक है । वीतराग प्रभु के प्रवचनों से आत्मार्थी इन छह द्रव्यों का स्वरूप जानकर अपनी आत्मा (जीवद्रव्य) को शुद्ध ज्ञानस्वरूप जानता-मानता तथा निश्चित करता है। इस प्रकार निज तत्व का निर्णय करके वह अन्तमुंखी होकर एकाग्र हो जाता है, और शुद्ध आत्मा में निहित, ज्ञान, दर्शन, आनन्द और आत्मिक शक्ति का उत्तरोत्तर विकास करके एक दिन परमात्म रूप हो जाता है। इस प्रकार आत्मार्थी की दृष्टि से एक दिन पूर्ण शुद्ध-बुद्ध परमात्मभाव की सृष्टि हो जाती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org