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१६२ | अप्पा सो परमप्पा
नहीं, सर्वकर्ममुक्त सिद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मा का परिचायक नहीं, जिसकी प्राप्ति के लिए आत्मार्थी या मुमुक्षु लालायित हो ।
अथर्व वेद में कहा गया है कि ईश्वर तो इस सृष्टि से कई गुणा व्यापक है, विराट् है। यह समग्र सृष्टि तो उसका एक चतुर्थांश भाग है । इसका अधिकांश भाग तो अमृत है। यह दृश्यमान भाग तो मर्त्यभाग है। यह तो उसकी विराट् सत्ता की साधारण अभिव्यक्ति. मात्र है।
इतना विराट् ईश्वर भी मनुष्य नहीं हो सकता, अन्य प्राणियों का तो बनना भी असम्भव है। अतः ऐसा परमात्मा बनना भी मुमुक्षु को अभीष्ट नहीं।
इसी अथर्ववेद में एक स्थान पर कहा गया है-परमात्मा तीनों काल और तीनों लोकों से पर है । वहाँ की श्रुति कहती है
'यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति ।' वह (परमात्मा) भूतकाल में भी था, भविष्यकाल में भी रहेगा, वर्तमान काल में भी है । इस प्रकार सब कालों में जो रहता है, जो देशकालातीत है। वस्तुतः वह अजन्मा है ।1 सदा से ही उसका अस्तित्व है। वह किसी प्रकार के रत्नत्रय या स्वरूप रमणरूप पुरुषार्थ के बिना ही प्रारम्भ से ही परमात्मा है । उसे किसी ने ईश्वर बनाया भी नहीं और न ही वह (ईश्वर) सद्धर्माचरण के या स्वभावरमण के पुरुषार्थ से बना है।
ईश्वर (परमात्मा) के स्वरूप सम्बन्धी ये सब बातें न तो यूक्तिसंगत हैं और न ही किसी माता-पिता के बिना ईश्वर या किसी भी मानव की उत्पत्ति हो सकती है और न कोई जीव सद्धर्माचरण ने पुरुषार्थ किये बिना परमात्मा (ईश्वर) बन सकता है। अतः परमात्मा का यह स्वरूप भी यथार्थ नहीं और आत्मार्थी मुमुक्ष के लिए ऐसा परमात्मा बनना शक्य भी नहीं है।
इससे भी आगे बढकर ईश्वर के विषय में कल्पना है कि ईश्वर से ये सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, वही इन्हें मारता है, जलाता है, उसकी ही रची हुई यह जड़-चेतनमयी सारी सृष्टि है।
-बह्म सूत्र १.१११
१ जन्माद्यस्य यतः २ यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जन !
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥
-गीता १०/३६
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