________________
परमात्मा कैसा है, कैसा नहीं ? | १६५
कुछ छोड़ दो, तुम्हें कुछ करने धरने की जरूरत नहीं । तुम्हें न तप करना है, न कष्ट सहना है और न स्वाध्याय कायोत्सर्ग आदि करना है । वही प्रसन्न होकर सब कुछ कर देगा ।
परमात्मा का यह स्वरूप कितना घातक है
परमात्मा का यह अन्धविश्वासप्रेरक स्वरूप कितना भ्रान्तियुक्त है ! आत्मा को स्वतन्त्रता का विघातक है ! आत्म - पुरुषार्थ - हन्ता है, स्वरूपरमणता में विघ्नकारक है तथा आत्मा को ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रूप मोक्षमार्ग की आराधना - साधना से हटाने वाला है । इस मान्यता पर चलने से आत्मा कदापि सच्चे माने में परमात्मा नहीं बन सकेगा, अपितु लीला और कौतुक दिखाने वाले तथाकथित भगवान् या प्रभु का गुलाम एवं भिखारी बन जायेगा । वह निम्नस्वरूप वाले उक्त प्रभु के हाथों की सदैव कठपुतली बना रहेगा । अपनी स्वतन्त्र प्रज्ञा से परमात्म तत्त्व की आराधना नहीं कर सकेगा ।
यह लीला भी ईश्वर को शोभा नहीं देती
फिर जो परमात्मा राग, द्व ेष, काम, क्रोध, मोह, पक्षपात, खुशामद - खोरी, अन्याय आदि दोषों से सर्वथारहित है, वीतराग है, अनन्तज्ञानदर्शन सुख वीर्यमय है, उसमें कामनाजनित इच्छा से लिप्त, दोषयुक्त या जैनशास्त्र की भाषा में कहूँ तो निदान ( नियाणा) से युक्त संसार की रचना रूप लीला कैसे घटित हो सकती है ? योगीश्वर आनन्दघनजी ने कितना युक्तिसंगत कहा है
'दोष रहितने लीला नवि घटे, लीला दोष-विलास । 1
संसार के विकारों, दोषों एवं कर्मों से सर्वथा मुक्त निराकार निरंजन होने पर भी परमात्मा द्वारा पुनः लीला करना तो राग, द्वेष, काम, कामना, पक्षपात आदि दोषों से युक्त विलास है । परमात्मा ऐसा विलासी, कामनारायण या किसी भी दोष से युक्त नहीं हो सकता । क्योंकि लोला तो कुतूहलवृत्ति से तथा ज्ञान एवं सुख की अपूर्णता से होती है, जो परमात्मा के लिए शोभनीय नहीं है ।
१ आनन्दघन चौबीसी ( ऋषभजिन स्तवन )
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org