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आत्मार्थी की दृष्टि : परमात्मभाव को सृष्टि | १८७
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में से हेय, ज्ञेय और उपादेय को अलग-अलग छांट लेता है और तदनुसार आचरणीय का आचरण करता है, अनाचरणीय का त्याग करता है । नौ तत्त्वों के नाम इस प्रकार हैं - ( १ ) जीव, (२) अजीव (३) पुण्य, (४) पाप, (५) आस्रव, (६) संवर, (७) निर्जरा, (८) बन्ध और ( 8 ) मोक्ष | जो जानता है, वह जीव है | शरीरादि अजीव हैं, उनमें ज्ञान नहीं है । पुण्यपाप तथा मिथ्यात्वादि आस्रव हैं- कर्मों के आने के द्वार हैं । पुण्य-पाप आदि विकारों में अटक जाना बन्ध है । पुण्य-पाप-रहित चैतन्यमूर्ति आत्मा की पहचान करके उसमें (आत्मभावों में ) स्थिर होना संवर-निर्जरा रूप धर्म है। आत्मा की शुद्ध दशा का पूर्णरूप से प्रकट होना मोक्ष है । इन सात या नौ तत्त्वों के अध्ययन से आत्मार्थी जीव-अजीव का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करता है । इन नौ तत्त्वों को जानकर आत्मार्थी यह निश्चय करता है कि ये जीव के सिवाय शेष आठों तत्त्व जीव ( आत्मा ) के विकास या ह्रास को बताने के लिए हैं । अतः वह शुद्ध आत्मतत्त्व (जीव ) को प्रधान मान कर उस पर विश्वास करता है । साथ ही यह भी जान लेता है कि वर्तमान में दृश्यमान ये देह आदि पर्याय (शुभाशुभ ) कर्म के कारण हैं । मेरा शुद्ध स्वरूप कर्मों से आवृत है ।
आत्मा से परमात्मा बनने के लिए आत्मार्थी जीव ( आत्मा ) और अजीव (अनात्मा = जड़) का स्वरूप समझकर आत्मा (जीव ) एवं आत्मशुद्धि में साधक संवर, निर्जंग और मोक्ष तत्त्वों को 'स्व' तथा अजीव तथा आत्मबाह्य एवं आत्मशुद्धि में बाधक आस्रव, पुण्य, पाप एवं बन्ध तत्त्वों को 'पर' समझता है । इन दोनों प्रकार के साधक-बाधक तत्त्वों का पृथक्करण करता है । मोटे तौर पर वह जोव और अजीब इन दोनों तत्त्वों को ज्ञेय ( जानने योग्य) समझता है । पाप, आस्रव और बन्ध ये तोनों तत्त्व आत्मा के लिए परभाव हैं तथा आत्मा के विकास और शुद्धि में बाधक हैं, इसलिए आत्मार्थी इन्हें हेय ( त्याज्य) समझता है । कर्मों के आस्रव और बन्ध के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पांच कारणों से दूर रहने का प्रयत्न करता है । संवर, निर्जरा और मोक्ष, इन तीनों तत्त्वों को आत्मार्थी इसलिए उपादेय और आचरणीय मानता है कि ये तीनों आत्मा को कर्मों से लिपटने से बचाते हैं, आत्मा को स्वभाव में प्रवृत्त होने में, आत्मा की शुद्धि एवं विकास में तथा मोक्ष प्राप्ति या परमात्मभाव की प्राप्ति में ये तीनों तत्त्व सहायक हैं। संवर से आते हुए कर्म रोके जाते हैं और निर्जरा से पहले के बाँधे हुए कर्मों का एकदेश से क्षय किया जाता है
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