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मानवात्मा का तीसरा प्रकार : परमात्मा अन्तरात्मा साधना करते-करते जब आध्यात्मिक विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाता है, जब उसके चार आत्मगुणघाती (घातिक) कर्म क्षय हो जाते हैं, अथवा वह आठों ही कर्मों से रहित हो जाता है, तब वह सर्वज्ञ-सर्वदर्शी परमात्मा हो जाता है। परमात्मा का अर्थ है-ज्ञान, दर्शन, शक्ति और आनन्द से परिपूर्ण आत्मा। यह आत्मा की सर्वोच्च विकासप्राप्त अवस्था है, या आत्मा के विकास की चरम सीमा है। चेतना के सूर्य की अनन्तरश्मियाँ उसमें प्रादुर्भूत हो जाती हैं ।
परमात्मा दो कोटि के होते हैं-(१) जोवन्मुक्त वीतराग अरिहन्त भगवान् और (२) सर्वथा शुद्ध-बुद्ध, अष्टकर्म मुक्त, देहादि-रहित सिद्ध परमात्मा।
इनमें से अरिहन्त कोटि के जोव-मुक्त परमात्मा तीर्थंकर भो हो सकते हैं, सामान्य केवलज्ञानी भो हो सकते हैं, तथा जिनके भी चार घातिकर्म नष्ट हो चुके हैं, वे सब परमात्मा कहे जा सकते हैं। ऐसे परमात्मा का लक्षण देखिये योगीश्वर आनन्दधनजो के शब्दों में
ज्ञानानन्दे हो पूरण पावनो, वजित सकल उपाध, सुज्ञानी । अतीन्द्रिय गुण-गण-मणि आगरू, इम परमातम साध, सुज्ञानी ।
जो ज्ञान और आनन्द से परिपूर्ण हैं, परम पवित्र, शुद्ध आत्मा हैं, देहाध्यास के कारण होने वाली समस्त उपाधियों से रहित हैं, वे इन्द्रियातीत हैं, अर्थात्-वे इन्द्रियों से अगोचर हैं । तथा यथाख्यातचारित्री होने के कारण क्षमा, दया, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य आदि अनन्त आध्यात्मिक गणों के भण्डार हैं। वे ही परमात्मा हैं। किसी के वरदान से, अनुग्रह से या परपुरुषार्थ से वे परमात्मा नहीं बनते, अपितु अपनी ही रत्नत्रय साधना में पुरुषार्थ से बनते हैं। जैनदर्शन इतना उदार है कि वह किसी भी जाति, देश, वेश, वर्ण, संघ या लिंग आदि के साथ परमात्मपद को नहीं बाँधता । किसी भी जाति, देश, लिंग, वर्ण, वर्ग, वेष. संघ या कूल आदि का स्त्रो या पुरुष, गृहस्थ या साधु, धर्मिष्ठ या पापिष्ठ, कुलीन या अकुलीन व्यक्ति अन्तरात्मा बनकर आत्मसाधना में पुरुषार्थ करके परमात्मा बन सकता है। हरिकेशबल मुनिवर चाण्डालकूल में जन्मे थे। उन्हें किसी भी प्रकार का धामिक वातावरण, उत्तम अवसर, विकास के साधन या आत्मा-परमात्मा का नाम-श्रवण भी उपलब्ध नहीं था, न ही उन्हें सुन्दर शरीर,
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